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योगसार टीका। अन्वयार्थ (णिच्छइ लोयफ्माण कबहार मुसरीरु मुणि) आत्माको लोकप्रमाण व व्यवहार नयसे अपने शरीरके प्रमाण जानो (एहन अप्पसहाउ मुणि) पेसे अपने आत्माके स्वभावको मनन करते हुए ( भवतीरु लड्डु पावह ' यह जीव गमारक तरको शीष्ट ही पालेता है अर्थात् शीघ्र ही संसार-सागरने पार होजाता है।
भावार्थ--यह आत्मा देव हरएक संसारी जीवके भीतर उसके शरीरभरमें व्यापकर रहता है, उसके असंख्यात प्रदेश संकोचकर शरीरप्रमाण होजाते हैं। आत्मामें संकोच विस्तार शक्ति है जो नामकर्मसे उदयसे काम करती है | एक छोटा बालक जन्मके समय अपने छोटे शरीरमें उत्तने ही प्रमाणमें अपने आत्माको रखता है। जैसे २ उसका शरीर फैलता है आत्मा भी फैलता है । लोकमें सबसे छोटा शरीर लमध्यपर्यातक सूक्ष्म निगोद जीवका होता है । जो 'धनांगुलक असंख्यात- भाग है व सबसे बड़ा महामत्स्यका होता है, जो मत्स्य अन्तिम समुद्र स्वयंभूरमणमें होता है । मध्यलोकमें असंख्यात द्वीप व समुद्र हैं । एक दूसरेसे दुने दूने चौडे हैं । पहला मध्यमें जम्बुद्वीप है जो एक लाख योजन चौड़ा है । । ___ यह मच्छ एक हजार योजन लम्बा होता है । बीचकी अवगाहनाके अनेक शरीर होते हैं। एक मूक्ष्म निगोद शरीरधारी जीव संसारमें भ्रमण करते हुए कभी महामत्स्य होसकता है व महात्म्य भ्रमण करते हुए कभी सूक्ष्म निगोद होसकता है । तौभी आत्माके प्रदेश असंख्यातस कम नहीं होते हैं। जैसे एक कपड़े की चादर पचास गजकी हो, उसको तह कर डाले तो एक गजक विस्तारमें होसकती है, मापमें ५० गजसे कम नहीं है । इसीतरह आत्माके प्रदेश संकोचसे कम प्रदेशके देहमें आजाते हैं। अतएव निश्चयनयसे तो यह जीव असंख्यात प्रदेश ही रखता है, व्यवहारमें शरीरप्रमाण कहते हैं।