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योगसार टीका। संखेजार्सखेज्डाणता वा होति पोकालपदेसा । लोगागासेव टिदी एगपदेसो आगुस्स हो ॥ ८ ॥ लोगागासपईसा छद्दबेहि फुडा सदा होति । सबलोगागासं अण्णेहिं शिवजिर होदि ॥ ५८६ ॥
भावार्थ-धर्स, अधर्म द्रव्य स्थिर चंचलता रहित लोक व्यापी हैं, लोकके बाहर नहीं हैं | जीव अपने प्रदेशोंको संकोच विस्तारके कारण लोकके अनख्यातवे भाग लेकर सर्वलोकी भर हैं । पुद्गल द्रव्य एक प्रदेशको लेकर सर्वत्र हैं। स्कंधकी अपेक्षा उमकं प्रदेश परमाणुकी गणना सन्ध्यान असख्यात तथा अनंत होते हैं। कालाणु एक एक प्रदेश रखते हुए ध्रुव अन्नख्यात है। लोकाकाशके प्रदेश छः द्रव्यसे भरे हुये सदा रहते हैं। अलोकाकाशमें अन्य पांच द्रव्य नहीं है । इसतरह नित्य बने रहनेवाले लोकमें अपने आत्माको शुद्ध आकारमें देखना चाहिये। तत्वानुशासनमें कहा है
तशा हि चेतनोऽसंख्यादेशो मूर्तिवर्जितः ।
शुद्धात्मा सिद्धरूपोऽस्मि ज्ञानदर्शनलक्षणः ।। १४७ ॥ भावार्थ-अपने आत्माको ऐसा भ्यावे कि यह चेतन है, असंख्यात प्रदेशी है, वर्णादि मूर्ति रहिन है, शुद्ध स्वरूपी है, सिद्धक समान है व ज्ञान दर्शन लक्षणवान है ।
व्यवहारसे आत्मा शरीरप्रमाण है। णिच्छह लोयपमाण मुणि ववहारइ सुसरीरु । एहउ अप्पसहाउ मुणि लहु पावहु भवतीरु ।। २४ ।।