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________________ १२२] योगसार टीका । कर्ममल, नोकममल, रागादि भाव कर्ममलसे रहित हैं, स्त्रके समान परम प्रकाशमान है, ज्ञानमय है, पानीका समान सब जाननेयोग्यको झलकानेवाले हैं, आकाशके समान निलेप है । अपने आत्माको शुद्ध असंख्यातप्रदेशी ल्यानमें लेकर अपने शरीरके भीतर ही देखना चाहिये । यद्यपि यह आस्मा शरीरके भीतर व्याप्त है, शरीर प्रमाण आकारधारी है तथापि प्रदेशोंमें असंख्यात ही है। ___ इस आत्मामें संकोच विस्तार शक्ति हैं | नामकर्मके उदयस शरीरप्रमाण आकारको प्राप्त हो जाता है। जैसे दोपकका प्रकाश छोटे थड़े वर्तनमें रक्खा हुआ वर्तनक समान आकारका हो जाता है । साधकको अपने भीतर ऐसे आत्माकै आकारको शुद्ध देखना चाहिये। अपनी ही मूर्ति के समान आत्माकी मूर्तिको तदाकार देखना चाहिये। जिस आसनसे ध्यान करे उसी आसनरूप पद्मासन या पयंकासन या कायोत्सर्ग अपने आत्माको शुद्ध देखना चाहिये । सिद्धका आकार भी अंतिम शरीरप्रमाण पद्मासन आदि किसी आकार रूप है। प्रदेश अमूर्तीक द्रव्योंके अमूर्तीक व मृतक पुलके मूतीक होते हैं। जीप वर्ण, गंध, रस, स्पर्शस रहित अमूर्तीक है । उसके सर्व प्रदेश भी. अमूर्तीक हैं। गोम्मटसार जीवकांडमें कहा है आगासं वजित्ता सब्बे लोगम्मि चेव गरिय बहिं । वावी धम्माधम्मा अवदिदा अल्दिा णित्रा ॥ ५८२ ॥ लोगस्स असंखेजदिभागप्पहुदि तु सल्बलोगोत्ति । अप्पपदेसविसप्पणसंहारे वावडो जीवो ॥ ५८३ ॥ पोमालदवाणं पुण प्रयपदेसादि होति भजणिज्जा । एकको दु पदेसो कालागुण भुवो होदि ॥ ५८४ ॥ - - -
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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