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________________ योगसार दीका। यवहारा दु पदे जीवरस हवंति बण्णमादीया । गुणटाणन्ताभावा ण दु केई णिच्छयणायस्स ॥ ६ ॥ भावार्थ-वर्णादि, मार्गणा, गुणस्थानादि सर्व भाव व्यवहारनयन जीबके कहे गए हैं। निश्चयनवसे ये कोई जीवके महीं हैं। यह तो परम शुद्ध है। गृहस्थी श्री निर्माणमार्ग चलमत्ता है। गिहिवाचार परहिआ हेयाहेउ मुर्णति । अणुदिणु झायहि देउ जिणु लहु गिश्वाणु लहति ।।१८।। अन्वयार्थ--(गिहियावार परट्टिया) जो गृहस्थ के व्यापारमें लगे हुए है ( हेयाहेड मुणति ) तथा हेय उपादेयको त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्यको जानते हैं : अणुदिणु जिणु देउ झायहि ) तथा रात दिन जिनेन्द्र देवका ध्यान करते हैं ( लहू णिव्वाणु लहंति ) चे भी शीय निर्वाणको पाते हैं। भावार्थ-निर्वाणका उपाय हरएक भव्यजीव करसक्ता है। यहां यह कहा है कि गृहस्थकं व्यापार धंधे में उलझा हुआ मानव भी निर्वाणका साधन करसक्ता है। यह बात समझनी चाहिये फि निर्वाण आत्माका शुद्ध स्वभाव है, वह तो यह आप है ही उस पर जो कर्मका आवरण है उसको दूर करना है । उसका भी साधन एक मात्र अपने ही शुद्ध आत्मीक स्वभावका दर्शन या मनन है | निर्वाणका मार्ग भी अपने पास ही है। . : सम्यादृष्टी अन्तरात्माके भीतर भेद विज्ञानकी कला प्रगट हो जाती है, जिसके प्रभावसे वह सदा ही अपने आत्माको सर्च कर्मजालसे निराला वीतराग विज्ञानमय शुद्ध सिद्धके समान श्रद्धान ARम्मान
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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