SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४] योगसार टीका । मम्यग्दृष्टि सुगति पाता है। सम्माइट्री-जीवर दृग्गई-गमणु ण होई। जइ जाइ वि तो दोसु पवि पुव्य-किउ खवणेइ ।।८८|| अन्वयार्थ -- ( सम्माइट्टी-जीव दुगाई-गमणु ण होइ। मम्यष्टी जीवका गमन ग्बोटी गतियों में नहीं होना है (जइ जाइ वि तो दोसु णाव ) यदि कदाचित खोटी गति जावे तो हानि नहीं पुच-किस माइ) गई पर्मन कर्मदा भय करता है। भावार्थ-आत्माके शुद्ध स्वरूपकी गाढ़ रुचि व अनिद्रिय सुखको परसप्रेम रखनेवाले भव्यजीत्रको सम्यग्दृष्टि कहते हैं वह मोक्षक नगरका पथिक बन जाना है | संसारकी तरफ पीठ रखता है उनके भीतर आठ लक्षण या चिह्न प्रगट होजाले हैं संबो णिटवेओ णिदा गरुहा उपसमाभक्ति । बन्धनं अणुकंपा गुणद्ध सम्मन जुत्तम्स ॥ (१) संवेग-धर्ममें प्रेम | (२) निवेद-मंझार शरीर भागांसे वैराग्य । संसारके भीतर चारी गनिमें आकुलता है, यह शरीर कारागार है, इन्द्रियोंके भोग अग्निकारी व नाशवन्त हैं। (३) निन्दा (४) गर्दा-आत्मबलकी कमीम व कापायके उदयमे लाचार होकर जो उन लौकिक कार्योंमें प्रवर्तना पड़ता है व आरंभादि करना पड़ता है उसीके लिये वह अपने मनमें अपनी निंदा करता रहता है व दूसरोसे भी अपनी कमीकी निंदा करना रहता है । वह तो निर्वाणके लाभको ही उत्तम जानता है । वहांतक अपनी मन, वचन, कायकी क्रियाको त्यागनेयोग्य समझता है ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy