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________________ योगसार टीका। यह जीव जसे आप अकेला संगारकी चार गतियों में ममता है बम ही यदि यह बलत्रय धर्मका सम्यक प्रकार आराधन करे तो आप ही अकेला निर्वाण चला जाता है ! उसके साथी यदि उसके समान सम्यकमारित्र नहीं पालते हैं तो वे निर्वाण नहीं जा सक्ते । लिचपनयमे भी यह जीव बिलकुल अकेला है | हरएक जीवकर व्य, क्षेत्र, काट, भाव दूसरे जीवसे निराला है । हरएक जीव परम शुद्ध है। न आठों वर्मीका संयोग है, न शरीरका संयोग है, न विभाव भावांका संयोग हैं। पहलादि पांच अचेतन द्रव्योंसे बिलकुल भिन्न हैं । सिद्धके समान शुद्ध निरञ्जन व निर्विकार है, इसतरह अपनेको अक्रेटा जानकर अपने स्वभावमें मगन रहना चाहिये । बृहत् सामायिक पाउमें कहा हैगौरो रूपधरो वृद्धः परिहहः स्थूलः कृशाः कर्कशो मीणा मनुजः पशु रकमः पंढः पुमानंगना । मिथ्या स्त्रं विदधासि कल्पनमिदं मूहोऽविबुध्यात्मनो निन्य ज्ञानमयाबभावममलं सर्वव्यपारच्युतं ॥ ७० ॥ भावार्थ-तु मुह बनकर बह न मिथ्या कल्पना किया करता है कि में गोरा हूं, रूपवान हूँ, मजमृत शरीर हूं, पतला हूं, कठोर हूँ, देब हूं. मनुष्य हूं, पशु हूं, नारकी हूं, नपुंसक हूं, पुरुप हूं, स्त्री हुँ । दृ अपने मात्माको नहीं जानता है कि यह एक अकेला ज्ञानस्वभावी, निर्मल, सर्व दुःखोंसे रहित अविनाशी द्रव्य है। निर्मोही हो आत्माका ध्यानकर। एक्कुला जइ जाइसिहि तो परभाव चएहि । अप्पा झायहिं णाणमउ लहु सिव-सुक्ख लहेहि ॥७॥
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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