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________________ २५६] योगसार टीका। ___अन्वयार्थ-( जड इक्कुलउ जाइसिहि ) यदि द अकेला ही जायगा ( नो परभाव चाहि ) तो राग द्वेष मोहादि परभावोंको त्याग दे । (णाणमा अप्पा झायाहे ) ज्ञानमय आत्माका न्यान कर (लह सिवन्मुक्खल हदि)ती शीन ही मोक्षका सुख पाएगा। भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि है शिष्य : यदि तुझको यह निश्चय होगवा है कि त एक दिन मरेगा तब तुझे परलोक में अकेला ही जाना पड़ेगा । कोई भी चेनन या अचेतन पदार्थ तेरे साथ नहीं जांयगे। जिनमे तू राग करता है वे सत्र सह ही अट मांगो तय तेरा उनसे राग करना वृथा है । मे क्षणभंगुर पदागि राग करना शोकका व दुःखका कारण है। इसलिये तु अब मा कामकर जिसने तुझे थिरता प्राप्त हो। अविनाशी मोक्षका अनुपम सुग्न प्रान हो ! संसार में जन्म मरण करना नहीं पड़े । इष्ट वियोग अनिष्ट गोषक कार सहना न पड़े। पराधीन होकर पापकर्माका फल न भुगचना पड़, जिसम त निरंतर सुखी रहे । कभी भी बाधा न पाये व पु स्वाधीख होजावे. परम कृतार्थ होजावे, तृन्गाकी ज्याला शांत होजाये, कनायकी आग बुझ जाये । परम शांतिका प्रवाह निरन्तर बहने लगे, सर्व लोकालोकका ज्ञाता दृष्क्षा होजावे । निरन्तर आत्माके ही उपचन रनण करे, की भी खेद न प्राप्त करें | तुझे योग्य है कि मानो महले ही यब करले। मानवदेहसे ही शिवपद मिल सकता है । देव, नारकी: पशु देहसे कभी भी नहीं प्राप्त होसक्ता है। इस अवसरको खोना उचित नहीं है ! वह उपाय यही है कि जो जो द्रव्य, क्षेत्र, काल. भार अपना नहीं है उसे पर समझकर उन सबसे राग उठाले । केवल अपने ही ज्ञान स्वरूपी आत्माले द्रव्य क्षेत्र काल भावको अपना जानकर उसमें ही परम रूचिवान होजा,
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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