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________________ योगसार टीका । [ २५७ उसीका प्रेमी होगा. इसी में मगन रहनेका, उसीके व्यानके अभ्यासका । आत्मीक रसके पावका उद्यम कर | जगत में अनंतानंत आत्माओका, अनंतानंत पुलोंका, असंख्यात कालाणुओंका, एक धर्मद्रव्यका, एक अवमयका एक आकाशव्यका द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव भेद आत्मा के द्रव्य क्षेत्र काल भावसे निराला है । मेरे आत्माका अखण्ड अभेद एक द्रव्य है, असंख्यात प्रदेश क्षेत्र है, समय परिणमन काल है, ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि युद्ध भाव है, यही मेरा सर्वस्व है। कर्म संयोग होनेवाले राग द्वेष मोह भाव, संकल्प विकल्प, विभावमविज्ञानादि चार ज्ञान आदि सत्र पर हैं। जिन र भावों का निमित्त है ये सब भाव मेरे निज स्वाभाविक भाव नहीं हैं, मैं तो एकाकार परम शुद्ध स्वसंवेदन गोचर एक अविनाशी द्रव्य हूं । भव्य पुरुष परम वैराग्यवान होकर परमाणु मात्रको अपना न जानकर संसारके अगिक सुखको आकुलताका कारण दुःख समझकर एक अपने ही आत्माकं व्यानमें मगन होगा | आत्मानुभत्र ही एक मात्र उपाय है जिससे ही अनंत आत्माएं शिव-सुखको पाचुके हैं, तू भी इसी उपाय शिव-सुख पावेगा। समयसार में कहा हैएको मोक्षपथो य एष नियतो निवृत्यक स्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति । सम्म निरन्तरं विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥ ४७-१० ॥ भावार्थ- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकतारूप ही एक निश्चित मोक्षमार्ग है। जो कोई अन्य द्रव्योंका स्पर्श न करके एक इस ही आत्मामयी भावमें ठहरता है, उसीको निरन्तर ध्याता है, उसीको चेनता है, उसीमें निरन्तर बिहार करता है, वह अवश्य शीघ्र ही १७
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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