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________________ २५८ योमसार टीका। नित्य अद्यरूप समयसार या शुद्धास्माका लाभ करके उसीका निरन्तर अनुभव करता रहता है, परम आनंदी होजाता है । पुण्यको पाप जाने वही ज्ञानी है । जो पाउ वि सो पाउ मुणि सबु इ को वि मुणेइ । जो पुष्णु वि पाउ वि भणइ सो बुइ को वि हवेइ ॥७१।। अन्वयार्थ -- (जो पाउ वि सो पाउ मुणि) जो पाप है उसको पाप जानकर (सन्यु इ को वि मुणेइ ) सब कोई उसे पाप ही जानता है (जो पुण्णु वि पाउ वि भणइ) जो कोई पुण्यको भी पाप कहता है ( सो बुह को वि हवेड) वह बुद्धिवान कोई बिरला ही है। भावार्थ--जगतके सर्व ही प्राणी सांसारिक दुःखोंसे डरते हैं तथा इन्द्रिय सुखको चाहते हैं । साधारणतः यह बात प्रसिद्ध है कि पापसे दुःख होता है व पुण्यसे सुख होता है । जब धर्मकी चर्चा होती है तब यही विचार किया जाता है कि पापकर्म न करो, पुण्यकर्म करो। पुण्यस उच्च कर्म मिलते हैं, धनका, पुत्रका, बहु कुटुम्बका, राज्यका व अनेक विषयभोगोंकी सामग्रीका लाभ एक पुण्यहीसे होता है । इन्द्रपद, अहमिन्द्रपद,चक्रवर्तीपद,नारायण व प्रत्तिनारायणपद, कामदेव, तीधकरपद आदि महान महान पद पुण्यसे ही मिलते हैं । यहाँ आचार्य कहते हैं कि जो संसारके भोगोंके लोभसे पुण्यको ग्रहणयोग्य मानते हैं वे मिथ्यादृष्टी अज्ञानी हैं। सम्यम्ही ज्ञानी पापके समान पुण्यको भी बन्धन जानते हैं, वे पुण्यको भी पाप कहते हैं जिसले संसारमें रहना पड़े, विषयमोगों में फँसना पड़े, यह स्वाधीनता. घातक पुण्य भी पाप ही है । ज्ञानीको तो एक आत्मीक आनन्द ही
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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