________________
४६ ]
योगसार टीका |
जगतके करनेका, बनाने व बिगाड़नेका कोई आरोप किया जा सक्ता है, न मुक्दु ख कर्ममल भुगतानेका आरोप किया जा सक्ता है। वह संसारक प्रपंचजालमें नहीं पड़ता है । परम कुनकृत्य हैं।
जगत अनादि है- कर्मकी जरूरत नहीं । काम इस जगतमें या तो स्वभावसे होजाते हैं जैसे पानीका भाफ बनना, बादल बनना, पानी वरसना, नदीका बहना, मिट्टीको लेजाना, मिट्टीका जमकर भूमि बन जाना, आदि२ । किन्हीं कामोंके करनेमें इच्छावान संसारी जीव निमित्त हैं। खेती, कपड़ा, वर्तन, आदि; मनुष्य व घोसले आदि पक्षी इच्छासे बनाते हैं, इस तरह जगतका काम चल रहा है ।
पापपुण्यका फल भी स्वयं हो जाता है। कार्मण शरीर में बन्धा हुआ कर्म जब पकता है तब उसका फल प्रगट होता है । जैसे क्रोध, मान, माया या लोभ व कामभावका होजाना या नित्य ग्रहण किया हुआ भोजन पानी हवाका स्वयं रस, रुधिर, अस्थि, चरत्री, मांसादिमें - बन जाना या रोगोंका होजाना, शरीरमें चल आजाना, विष खानेसे मरण होजाना ।
यदि परमात्मा इस हिसाबको रखे तो उसे बहुत चिन्ता करनी पड़े । तथा यदि उसे जगतके प्राणियपर करुणा होतो वह सर्वशक्तिमान होनेसे प्राणियों के भाव ही बदल देव जिससे वे पापकर्म न करें। जो फल देता है-दंड देता है वह अपने आधीनोंको बुरे कामोंसे रोक भी सक्ता है। परमात्मा सदा स्वरूप में भगन परमानन्दका अमृत पान करते रहते हैं, उनसे कोई फल देनेका विकार या उद्योग संभव नहीं है । जब परमात्मा किसीपर प्रसन्न होकर सुख नहीं देता है तब परमात्माकी स्तुति, भक्ति व पूजा करनेका क्या प्रयोजन है ?
इसका समाधान यह है कि वह पवित्र है, शुद्ध गुणका धारी है, उसके नाम स्मरणसे, गुण स्मरणले, पूजा भक्ति करनेसे, भक्त