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योगसार टीका ।
परमात्माका स्वरूप |
निम्मलु लिकलु सुद्ध जिणु विन्दु बुद्ध सिर संतु । सो परमप्पा जिणमणिउ एड जाणि नितु ॥ ९ ॥
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अन्वयार्थ - ( णिम्मलु) जो कर्ममल व रागादि मल रहित है (क्लुि ) जो निष्कल अर्थात् शरीर रहित हैं (सुद्ध) जो शुद्ध व अभेद एक है (जिए) जिससे आत्मा के सर्व को हम लिया है (वि) जो विष्णु है अर्थात ज्ञानकी अपेक्षा सर्व लोकालोकव्यापी है सर्वका ज्ञाता है (बुद्ध) जो बुद्ध है अर्थात स्वपर
को समझनेवाला है (सिव ) जो शिव है- परम कल्याणकारी है ( संतु ) जो परम शांत व वीतराग हैं ( सो परमप्पा ) यही परमात्मा है ( जिणणिउ ) ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ( एउ भिंतु जाणि) इस बातको शंका रक्षित जान |
भावार्थ- परमात्मा उत्कृष्ट व परम पवित्र आत्माको कहते हैं जो केवल एक आत्मा ही है उसके साथ किसी भी पाप पुण्य रूपी कर्मका संयोग नहीं है न वह किसी तरह का कपावभाव, राग, द्वेष, मोह रखता है। उसमें सांसारिक प्राणियों में पाए जानेवाले दीप नहीं हैं । संसारी प्राणी व कृष्णाशीत होकर मनसे किन्ही कामोंके करनेका संकल्प वा विचार करते हैं, वचनोंस आज्ञा देते हैं, कायगे जयम का आरंभ करते हैं। काम सिद्ध होनेपर सन्तोषी व न - सिद्ध होनेपर विवाद करते हैं, किसीपर राजी होते हैं. किसीपर नाराज होते हैं । परमात्मा के भीतर मोहका ऐश मात्र भी सम्बन्ध नहीं हैं, न मन, वचन, काय हैं इसलिये कोई प्रकारकी इच्छा या कोई प्रकारका प्रयत्न या कोई राग, द्वेष, मोड वा विकार या सन्तोष या असन्तोष कुछ भी सम्भव नहीं है। इसीलिये परमात्मामें न तो