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________________ ४४ ] योगसार टीका | छह दब्य णव पयथा पंचत्थी सत्त तच निाि । सह ताण रूयं सो सही मुणेयच्च ॥ १२ ॥ जीवादी सहहणं सम्मसे जिणवरेहिं पण्णनं । वहारा णिच्छयदो अप्पा हवइ सम्मतं ॥ २० ॥ भारार्थ - जीव, पुल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल ये छः द्रव्य हैं । कालको छोड़कर पांच अस्तिकाय हैं। जीवादि सात तत्व हैं। पुण्य पाप मिलाकर नौ पदार्थ हैं । उन सबका जो श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्ट्री जानना योग्य है । जिनेंद्रने कहा है कि जीवाहिका श्रद्धान व्यवहार सम्यक्त है अपने ही आत्माका यथार्थ श्रद्धान निश्चय मम्यक्त है 1 समयसार कलशमें श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं-वर्णा वा मोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनैवान्तस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युर्दष्टमेकं परं स्यात् ॥५- २॥ भावार्थ - त्रर्णादि व रागादि सर्व भाव इस आत्माके स्वभाबसे भिन्न हैं । इसलिये जो कोई निश्रयतत्वकी दृष्टिसे अपने भीतर देखता है उसे ये सब रागादि भाव नहीं दिखते हैं, केवल एक परमात्मा ही दिखता है | सारसमुच्चयमें कहा है पण्डितोऽसौ विनीतोऽसौ धर्मज्ञः प्रियदर्शनः । - यः सदाचारसम्पन्नः सम्यनवद्यमानसः || ४२ ॥ भावार्थ -- जो कोई सम्यग्दर्शनमें मजबूत है व सदाचारी है वही पंडित है, वही विनयवान है, वही धर्मात्मा है, उसीका दर्शन प्रिय है ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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