SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | योगसार टीका । [ ४३ उपशम हो जाये उन परिणामोंकी प्राप्तिको करणब्धि कहते हैं । एक अन्तर्मुहुर्तमें यह बहिरात्मा चौधे गुणस्थानमें आकर सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा हो जाता है । अन्तरात्माको पंडित कहते हैं. क्योंकि उसको भेदविज्ञानकी पंडा या बुद्धि प्राप्त होजाती है। इसको यह शक्ति होजाती है कि जब चाहे तब अपने आत्मा शुद्ध स्वभावको ध्यानमें लेकर उसका अनुप कर सकें । यद निःक होकर मनन करता रहता है | चारित्रमोहनीयके उदयसे गृहस्य योग्य कार्योंको भलेप्रकार करता है तौभी उनमें लिप्त नहीं होता है। उन सबको नाटक जानके करता है । भीतरमे ज्ञाताच्छा रहता है । भावना यह रहती. कि कर्मका उदय हटे कि मैं केवल एक वीतराग भावका ही रमण करता रहूं । ऐसा अन्तरात्मा चार लक्षणोंसे युक्त होता है -- १- मशम - शांतभाव - वह विचारशील होकर हरएक बातपर कारण कार्यका मनन करता है, यकायक क्रोधी नहीं होजाता है । २ संवेग - वह धर्मका श्रंमी होता है व संसार शरीर व भोगोंसे वैरागी होता है । ३ अनुकम्पा - वह प्राणी मात्रपर कृपालु या दयावान होता है । ४ आस्तिक्य - उसे इसलोक व परलोकमें श्रद्धा होती है। परमात्मप्रकाशमें कहा है देह विभिण्ण्ड णाणमउ, जो परमप्पु पिण्ड | परमसमाहि-परिडियड, पंडिट सो जि हवेह ॥ १४ ॥ भावार्थ जो कोई अपनी देह भिन्न अपने आत्माको ज्ञानमई परमात्मारूप देखता है व परम समाधिमें स्थिर होकर ध्यान करना है, वही पंडित अन्तरात्मा हैं । दंसणपाहुडमें कहा है— -
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy