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________________ - - - - ---- ४२] योगसार टीका। (५) यह असंयुक्त है-जैसे पानी स्वभावसे गर्म नहीं है-ठंडा है वैसे यह आत्मा स्वभावसे परम वीतराग है-रागी, द्वेषी, मोही, नहीं है। शुद्ध निश्चयनयको दृष्टि परसे भिन्न आत्माको देखनेकी होती. जैसे महल होले : ..... मैत्र, पानी जुदा है, पानी निर्मल है, वैसे ही यह अपना आत्मा शरीरस, आठ कोसे व रागादिसे सर्व परभावोंसे जुदा है | इस तरह आत्माको व अनात्माको ठीक २ जानकर आत्माका प्रेमी होजावे व सर्व इन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण आदि लौकिक पदास व संसार देह भोगोंसे उदास होकर उनका मोह छोड़दे और अपने आत्माका मनन करे । आत्माके मननके लिये नित्य चार काम करे (१) अरहंत सिद्ध परमात्माकी भक्ति पूजा करे, (२) आचार्य उपाध्याय साधु तीन प्रकारकं गुरुओंकी संवा करके तत्वज्ञानको ग्रहण करे, (३) तत्व प्रदर्शक ग्रन्थोंका अभ्यास करे, (४) एकांतमें बैठकर सबेरे सांझ कुछ देर सामायिक करें व भेदविज्ञान अपने व परकी आस्माको एक समान शुद्ध, विचारे । रागद्वेषकी विषमता मिटावे । __ इसतरह मनन करते हुए कम की स्थिति घटते घटते अंतः कोडाकोड़ी सागर मात्र रह जाती है तब चौथी प्रायोग्यलब्धि एक अन्तर्मुहूर्त लिये होनी है तब चौतीस चन्धाफ्सरण होते हैं । इरएक बन्धापसरण में सातसौ आठसौ सागर कौंकी स्थिति घटनी है । फिर जब सम्यक्तके लाभमें एक अन्तर्मुहूर्त बाकी रहता है तब करणलब्धिको पाता है तब परिणाम समय समय अनन्तगुण अधिक शुद्ध होते जाते हैं । जिन परिणामोंके प्रतापसे सम्यग्दर्शन रोकनेवाले अनन्तानुबन्धी चार कशय व मिथ्यात्व कर्मका अवश्य
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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