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________________ योगसार टीका। [१८५ परमात्माका लाभ होगा। व्यवहार वास्तव में अभृतार्थ व असत्यार्थ है, जैसा मूल पदार्थ है वैसा इसे नहीं कहता है। व्यवहारमें जीव नारकी पशु मनुष्य देव कहलाना है । निश्चयसे यह कहना असत्य है | आत्मा न तो नारकी है न पशु है न मनुष्य है न देव है। शरीर के संयोगसे व्यवहारनयके व्यवहार चलानेको मेद कर दिये हैं | जैसे तलवार लोहेकी होती है। सोनेकी म्यानमें ही मो मोनेको तलवार, चांदी भ्यानमें चाँदीकी तलवार, पीतलकी म्यानमें पीतलकी तलवार कहलाती है। यह कहना सत्य नहीं है। सय दलबारे एक ही हैं। उनमें भेद करनेके लिये सोना, चांदी व पीतलकी तलवार ऐसा कहना पड़ता है जो भेदरूप कथन सुन करके भी तलवारको एकरूप ही देखता है। सोना, चांदी व पीतलको नहीं देखता है । सोना चांदी पीतलकी म्यान देखता है वहीं ज्ञानी है। इसी तरह जो अपने देह मन्दिरमें बिराजित परमात्मा देवको ही आप देखता है, आपको मानवरूप नहीं देखता है । मानब तो शरीर है आत्मा नहीं हैं बही ज्ञानी है । पुरुषार्थसिद्धयपायमें कहा है-. . निश्चयमिह भूतार्थ व्यबहार वणयन्त्यभूतार्थम । भृतार्थबोधनिमुख: प्रायः सर्वोऽपि संसारः ॥५॥ माणवक व सिंहो यथा भक्त्यनवगीतसिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निन्धयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥ ७ ॥ भावार्थ-निश्चयनय यथार्थ वस्तुको कहता है, व्यवहारमय बस्तुको यथार्थ नहीं कहता है, इसलिये सर्वज्ञ देव निश्चयको भृतार्थ व व्यवहारको अभृतार्थ कहते हैं। बहुधा सर्व ही संसारी इस भूतार्थ निश्चयके ज्ञानसे दूर हैं । जिस बालकने सिंह नहीं जाना है वह बिलारको ही सिंद जान लेता है, क्योंकि बिलाप दिखाकर उसे
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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