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________________ योगसार टीका । सिंह कहा गया था, उसीतरह जो निश्चयतत्वको नहीं जानता है. वह व्यवहार हीको निश्चय मान लेता है । वह कभी भी सत्यको नहीं पाता है। धर्म रसायनको पीनेसे अमर होता है । जइ जर-मरण-करालियर तो जिय धम्म कहि । धम्म-रसायणु पियहि तुहुँ जिम अजरामर होहि ॥४६॥ अन्वयार्थ (जिय) हे जीव ! (जइ जरमरणकरालियउ) यदि जरा व मरणके दुःखोस भयभीत है (तो धम्म कोहि) तो धर्म कर (तुहूँ धम्मरसायणु पियहि ) तु धर्मरसायनको पी (जिम अजरामर होहि ) जिससे तृ अजर अमर होजावे | भावार्थ-मनुष्यगतिको लक्ष्य लेकर कहा है कि यहां जरा व मरणके भयानक दुःख हैं । जब जरा आजाती है, शरीर शिथिल होजाता है, अपने शरीरकी सेवा स्वयं करनेको असमर्थ होजाता है, इंद्रियों में शक्ति घट जाती है, आंत्रकी ज्योति कम पड़जाती है, कानों में सुननेकी शक्ति कम होजाती है, दांत गिर जाते हैं, कमर टेढ़ी होजाती है, हाथ पांव हिलने लगते हैं, खाने पीनेमें कट पाता है, चलने बैठने में पीड़ा पाता है। इच्छानुसार समय पर भोजनपान नहीं मिलता है। अपने कुटुम्बोजन भी आज्ञा उल्लंघन करने लग जाते हैं । शरीरमें विषयोंके भोग करनेकी शक्ति घट जाती है, परन्तु भोगकी तृष्णा बढ़ जाती है। तक चाहकी दाहसे जलता है, गमन नहीं कर पाता है, रातदिन मरणकी भावना भाता है। जरा महान दुःखदायी मरणकी दूती है, शरीरकी दशा क्षणभंगुर है, युवावय थोड़ा काल रहती है फिर यकायक बुढ़ापा
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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