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योगसार टीका |
आ पेरता है तब एक एक दिन वर्षके बराबर बीतता है ।
मरणका दुःख भी भयानक होता है। मरनके पहले महान कष्ट - दाई रोग होजाता है तब महान वेदना भोगता है। असमर्थ होकर कुछ भी कह सुन नहीं सक्ता है। जब तक शरीरका प्रधा है तबतक जन्म जरा मरणके भयानक दुःखोंको सहना पड़ेगा | मानव जन्म के दुःखमे पशुगतिके महान् दुःख हैं जहां सबलोंके द्वारा निर्बल वध किये जाते हैं। पराधीनपने एकेन्द्रियादि जन्तुओंको महान शारीरिक पीड़ा सहनी पड़ती है ।
आगम द्वारा नरकके असहनीय कर तो विदित ही हैं। देव गतिमें मानसिक कष्ट महान है, ईषभाव बहुत है, देवियोंकी आयु बहुत अल्प होती हैं तब देवोंको वियोगका घोर कष्ट सहना पड़ता हैं । विषयभोग करते हुए तृष्णाकी दाह बढ़ाकर रातदिन आकुलित रहते हैं, चारों ही गतियों में कर्मका उदय है। इन गतियोंके भ्रमणसे रहित होनेके लिये कर्मके क्षय करनेकी जरूरत है। विवेकी मानवको
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भले प्रकार निश्चय कर लेना चाहिये कि संसार सागर भयानक दुखरूपी खारे पानी भरा है, उससे पार होना ही उचित है। कर्मोंका क्षय करना ही उचित हैं, आत्माका भ्रमण रोकना ही उचित है । पंचमराति मोक्ष प्राप्त करना ही उचित है, अजर-अमर होना ही उचित है, इस श्रद्धानके होनेपर ही मुमुक्षु जीव संसारके अयके लिये धर्मका साधन करता है ।
धर्मि उसे ही कहते हैं जो संसार के दुःखोंसे उगारकर मोके परमपदमें धारण करे। वह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है । रत्नन्नयके भाव से ही नवीन कर्मोका संवर होता है व पुरातन कर्मोंकी अविपाक निर्जरा होती है। यह रत्नत्रय निश्वयसे एक आत्मीक शुद्धभाव है, आत्मतीनता है, स्वसंवेदन है, स्वानुभव है, जहाँ अपने ही आत्माके शुद्ध स्वभा