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________________ १८८] योगसार टीका । क्का श्रद्धान है, ज्ञान है व उसी में थिरता है । इसीको आत्मदर्शन कहते है, यही एक धर्म रसायन है, अमृतरसका पान है, जिसके पीनेस स्वाधीनपने परमानन्दका लाभ होता है, कर्म कटते है, और यह शीघ्र ही कर्मसे मुक्त हो, शुद्ध व पचित्र व निर्मल व पूर्ण, निज स्वभाषमय होकर सदा ही वीतरागभावमें मगन रहता है, फिर रागद्वेषमोहक न होनेसे पापपुण्यका बन्ध नहीं होता है. इससे फिर चार गतिमेंसे किसी भी गतिमें नहीं जाता है, सदाके लिये अजर अमर हो जाता है । शुद्धोपयोग धर्म है | कषायके उदय सहिन शुभोपयोग धर्म नहीं है | अशुभसे बचनेके लिये शुभोपयोग करना पड़ता है तथापि उसे बन्धका कारण मानना चाहिये । मोक्षका उपाय एक मात्र स्वानुभवरूप शुद्धोपयोग है । कपायकी कणिका मात्र भी बन्धकी कारक है । बृहत् सामायिकपाटमें कहा है पापाऽनोक्रुहसंकुले भवनने दुःस्वादिभिर्गमे पैरज्ञानवशः काय विपर्यस्त्वं पीडितोऽनेकधा । रे तान् ज्ञानमुपेत्त्य प्रताधुना दियाऽशेषतो विद्वांसो न परियति समये शत्रुन हत्या स्फुटं ।। ६५ ।। भावार्थ-यह संसार वन दुःखोंसे भरा है, उनका पार पाना कठिन है । पापके वृक्षोसे पूर्ण हैं । यह कवाय विषयोंसे तु अज्ञानी अनेक प्रकारसे पीड़ित किया जा रहा है, अब तृ शुद्ध आत्मज्ञान पाकर उन कषाय विषयोंको पूर्णपने नाश कर डाल । विद्वान लोग अवसर पाकर शत्रुओंको बिना मारे नहीं छोड़ते हैं। श्री पद्मनंदि धम्मरसायणमें कहते हैं -- बुहुमणमणोहिरामं आइजरामरपदुकवणासयम् । . इहपरलोयहिज (द)स्थ तं धम्मरस्त्रयणं वोच्छं ॥२॥ नम्
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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