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________________ १८४ ] योगसार टीका | नहीं करता है तभी अन्तरंग में विचार यही करता है कि जिसकी स्तुति कर रहा हूं वह देव कहाँ हैं । यह इस रहस्यको नहीं पहुंचता है कि उसीका आत्मा ही स्वभावसे परमात्मा है। तीन शरीरोंके भीतर यही साक्षात् देव बिराजमान हैं। मैं ही परमात्मा हूं। यह ज्ञान यह श्रद्धान व ऐसा ही परिणमन विचारे मिध्यादृष्टी जीवको नहीं होता है। सम्यग्दृष्टी सदा ही जानता है व सदा ही अनुभव करता है कि जब मैं अपने भीतर शुद्ध निश्यनयकी दृष्टिसे देखता हूं तो मुझे मेरा आत्मा ही परमात्मा जिनदेव दीखता है। मुझे अपने ही भीतर आपको आपसे ही देखना चाहिये। यही आत्मदर्शन निर्वाणका उपाय है। कोई सिंहकी मूर्तिको साक्षात् सिंह मानके पूजन करें कि यह सिंह मुझे खाजायगा तो उसको अज्ञानी ही कहा जायगा | ज्ञानी जानता है कि सिंहकी मूर्ति सिंहका आकार व उसकी क्रूरता व भयंकरता दिखाने के लिये एकमात्र साधन है, साक्षात सिंह नहीं है। इससे भय करने की जरूरत नहीं है। जहां साक्षात् सिंहका लाभ नहीं है वहां सिंहका स्वरूप दिखानेको सिंहकी मूर्ति परम सहायक है । शिष्यों को जो सिंहके आकारसे व उसकी भयंकरतासे अनभिज्ञ हैं, सिंहकी मूर्ति सिंहका ज्ञान करानेके लिये प्रयोजनवान है । इसी तरह जबतक व जिस समय अपने भीतर परमात्माका दर्शन न हो तबतक यह जिन मूर्ति परमात्माका दर्शन करानेके लिये निमित्त कारण है। मूर्तिको मूर्ति मानना, परमात्मा न मानना दी यथार्थ ज्ञान है । व्यवहार के भीतर जो मगन रहते हैं वे मूल तत्वको नहीं पहचानते हैं | यहां पर आचार्यने मूल तत्व पर ध्यान दिलाया हैं कि - हे योगी | भीतर देख, निश्चित होकर भीतर ध्यान लगा । तुझे राग द्वेषके अभाव होने पर व समभावकी स्थिति प्राप्त होने पर
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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