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________________ योगसार टीका। [२४१ करते हैं, वे ही बड़े विवेकी पंडित हैं, वे ही परम ऐश्वर्यवान हैं, रत्नत्रयकी अपूर्व सम्पदाके धनी हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी एकतामें लवलीन हैं, वे ही भाग्यवान हैं, भगवान हैं, अतीन्द्रिय ज्ञान व सुखके स्वामी हैं. शोना ही मोक्षलाभ करेंगे । आत्मानुशासन में कहा हैयेषां भूषणामसपातरजः म्यानं शिलान्यातरम् शथ्या शरिला मही सुचिहिने गेहं गुहा हो पिनाम् । यात्मात्मीयविकलावी तालयात्रुत्तमोगाम्या - मते नो ज्ञानधना मनांसि पनसा मुकिम्हा निहा: १२५९।। भावार्थ-जिन महात्माओंका गहना दारी में लगी रज है, जिनको बैठनेका स्थान पापाणको शिला है, जिनकी शय्या कङ्करीली भूमि है, जिनका सुन्दर घर बाघोंकी गुफा है, जिन्होंने अपने भीतरमे सर्व विकल्प मिटा दिये हैं व जिन्होंने अज्ञानकी मांगो तोड़ डाला है, जिनके पास सम्यग्ज्ञान धन है, जो मुक्तिक प्रेमी है, अन्य सब इच्छाओंसे दूर हैं, ऐसे वागागण हमारे मनको पवित्र करें | गृहस्थ हो या मुनि, दोनोंके लिये आत्मरमण सिद्ध-मुखका उपाय है। सागार विणागारु कु वि जो अप्पाणि बसेइ । सो लहु पावह सिद्धि-सुहु जिपानरु एम भइ ॥६५॥ अन्वयार्थ-(सागारु वि णागारु कु वि) गृहस्थ हो या मुनि कोई भी हो (जो अपाणि वसेइ) जो अपने आत्माके भीतर बास करता है (सो सिद्धि-सुहु लहु पाचइ) वह शीघ्र ही सिद्धि के
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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