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________________ २४० ] योगसार टीका। थाहर जानके उन सबकी ममता त्यागता है, इसीतरह जिन शुभ भावोंसे लौकिक उन पदोंकी प्राप्तिके योग्य पुण्यका बन्ध होता है, उनको भी नहीं चाहता है । धर्मानुराग, पांच परमेधी भक्ति, अनुकम्पा, परोपकार, शास्त्रपठन आदि शुभ भावोंक भीतर वर्तता है क्योंकि शुद्धोपयोगमें अधिक ठहर नहीं सक्ता है | आत्मवीयकी कमी है तब अशुभ भावोंसे बचने के लिये शुद्ध भावों में रहते हुये भी ज्ञानी उससे विरक्त रहता है। परमाणु मात्र भी रागभाव बंधका कारण है ऐसा ग्रह जानता है । चौदह गुणस्थान आत्माकी पचटिकी श्रेणियों है तथापि शद्धास्माके मूल, पर संयोग रहित, एकाकी स्वभावमे भिन्न है । इसलिये ज्ञानी इनको भी इसीतरह त्यागयोग्य समझता है । जैसे सीढ़ियोपर बढ़नेवाला सीढ़ियोंको त्यागयोग्य समझाके छोड़ता जाता है : एक शुद्धोपयोगको ग्रहण करनेका उत्सुक होकर धर्मप्रचारके विचारोंको भी त्यागता है । द्रव्यार्थिक नयसे आत्मा नित्य है. पर्यायाथिक नयसे अनित्य है। अभेदनयसे एकरूप है, मेदाम्प व्यवहारनयसे अनन्तरूप है। आत्मा गुण पर्यायोंका समूह है, लोक छः द्रव्योका समुदाय है, काँके १४८ भेद हैं, कम का बंध चार प्रकारका होता है। प्रकृति प्रदेश बन्ध योगोंस व स्थितिः अनुभाग बन्ध कषायोंमे होता है। सात तत्व हैं, नव पदार्थ हैं, इसदि सबै विकल्पोंको चन्धकारक जानकर त्याग देता है । सिर्विकल्प समाधि व स्वानुभव आलापक लिये यह एक अपने ही आमाके भीतर आत्माके द्वारा अपने ही आत्माको विदा देता है। . __ . इस तरह जो ज्ञानी व विरक्त पुरुष संसारकी सर्व प्रपंचावलीसे पूर्ण विरक्त होकर आत्मयान करते हैं व परमानन्दके अमृतका पान
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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