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योगसार टीका ।
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करना चाहिये । शुद्ध भाव में चलनेवाले मोक्षार्थी महात्माओं को इसी सिद्धांतका सेवन करना चाहिये कि मैं सदा ही एक शुद्ध चैतन्यमय परम जोति स्वरूप हूँ | इसके सिवाय जो नाना प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वे मेरे शुद्ध भावसे भिन्न लक्षणधारी हैं। उन रूप मैं नहीं हूं। ana मुझसे भिन्न परद्रव्य ही हैं ।
त्यागी आत्मध्यानी महात्मा ही धन्य हैं । धण्णा ते भयवंत वुह जे परभाव चर्यति । लोयालोय - पयासयरु अप्पा विमल मुणंति ॥ ६४ ॥
अन्वयार्थ - ( जे परभाव चयंति ) जो परभावोंका त्याग करते हैं और (लोयालोय पयासयरु अप्पा मुणांत) लोकालोकप्रकाशक निर्मल अपने आत्माका अनुभव करते हैं ( ते भयवंत बुह धण्णा ) वे भगवान ज्ञानी महात्मा धन्य है ।
भावार्थ - आत्माका स्वरूप निश्यले परम शुद्ध है । ज्ञान इसका मुख्य असाधारण लक्षण है। ज्ञानमें वह शक्ति है कि एक ही समयमें यह सर्वलोकके छः द्रव्योंको, उनकी पर्यायोंको लिये हुये तथा अलोकको एक ही साथ क्रम रहित जैसेका तैसा जान सके । इसी तरह आत्मामें वह सब गुण हैं जो सिद्ध भगवानमें प्रगट होजाते हैं।
स्वभावसे आत्मा सिद्ध के समान है । तत्वज्ञानी महात्मा जिस पदके लाभका रुचिवान होता है उसी पदको ध्याता है। तब यह सर्व परपदार्थोंसे वैरागी हो जाता है । पुण्योदय से प्राप्त होने वाले बारायण, बलभद्र, प्रतिनारायण, चक्रवर्ती, कामदेव, इन्द्र, धरणेन्द्र, अहमिंद्र आदि पोंको कर्मजनित नाशवंत व आत्मा शुद्ध स्वरूपसे