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________________ २३८] योगसार टीका। मरणमें समभावका धारी होजाता है । एकांत वन उपयन पर्वतादिके निरंजन स्थानों पर बैठकर आत्मध्यान करता है तब एक अपने ही · शुद्ध आत्माको भावमें ग्रहण करता है व सर्व परभावोंसे उपयोगको .हदाता है। जितने भाव कर्मोंक निमित्तल होते हैं व जो अनित्य हैं उन सबसे राग त्यागता है। औदयिक. श्योपशामिक व छूटनेवाले औपशमिक भावोंसे विरक्त होकर क्षायिक व परिणामिक जीवत्व भावको अपना स्वभाव मानकर एक शुद्ध आत्माकी वारवार भावना करता है । ऐसा मुनिराज रागद्वेषको पूर्ण जीत लेता है। क्षपकरेणीपर चढ़कर अन्नमुहूर्तमें चार घातीय कर्मोंका क्षय करके केवलज्ञानी होजाता है। फिर चार अघातीय कर्मोंका भी - नाश करके संसारसे मुक्त होजाता है । परभावोंके त्यागमें ही आपके निज भावका यथार्थ ग्रहण होता है तब शुद्ध, आत्मानुभव प्रगट होता है। यही मोक्षमार्ग है व सदा ही आनंद अमृतका पान करानेवाला है। समयसारकलशामें कहा हैएकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किस ते परेषाम् । 'ग्राहस्तश्चिन्मय एव भायो भावाः परे सर्वत एच हेयाः ॥५॥ सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितीक्षार्थिभिः सेन्यतां शुद्ध चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विबुधा भावाः पृथम्लक्षणास्तेऽहं नाऽस्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं सममा अपि ॥६-२॥ भावार्थ-चैतन्यमय एक भाव ही आत्माका निज भाव है। शेष सर्व रागादि भाष निश्चयसे पर पुदलोंके हैं। इसलिये एक चैत. न्यमय भाषको ही ग्रहण करना चाहिये । शेष सर्व परभावोंका त्याग
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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