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योगसार टीका। मुखको पाता है (जिणवर एम भणेइ ) जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है।
भावार्थ- आत्मीक अतीन्द्रिय आनंदको सिद्धिसुत्र या सिद्धोंका सुख कहते 3 । जैसा शुद्धात्माका अनुभव सिद्ध भगवानोंको है वैसा ही का अनुभव अत्र होता है तब अना मुख सिद्वोंको वेदन होता है या ही सुखा शुद्रामा घेदन करनेवालों में होता है।
आत्मीक आशंदुका म्याद जिस साधनस हो वही मोक्षका उपाय है या आनंद सुखका साधन है । क्योंकि बानुभवमें सम्यग्दशन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्धारित्र तीनों ही गर्मित है। स्वानुभव ही निश्चय सत्राप स्वरूप मोक्षगांग है। उसीस नवीन क्रमौका मेवर होला है. व पुगने काँकी निर्जरा होनी है । यही एक सीधी सड़क मोक्षमहलकी तरफ गई है । इस सिबाय कोई दुसरी सड़क नहीं है व बाहरी साधन मन, वचन, कायकी शक्तिको निराकुल करनेके लिये है । जिननी मनमें निराकुलता व निश्चिन्तता अधिक होगी उतना ही मन स्त्रानुभवमें बाधक नहीं होगा।
जगतके प्रपंचजाल मन, वचन, कायको अटकाते हैं, उलझाते हैं, इसलिये मोक्षमार्गमें बाहरी निकट साधन साधु वा अनगारका चारित्र है व क्रमश बाहरी साधन सागारका-श्रावकका चारित्र है। श्रावकका चारित्र बतलाने हुये साधुके चारित्रपालनकी योग्यता होती है। बिना साधुका चारित्र पाले कर्मका नाशक तीन स्त्रानुभव नहीं जागृत होता है। हराएकका व्यवहार चारित्र ग्यारह प्रतिमारूप है-क्रम क्रममे बढ़ता जाता है ! पहली २ प्रनिमाका दुसरी आदिमें बना रहता है आगे और बढ़ जाता है, उसका संक्षेप स्वरूप इस प्रकार है
(१) दर्शन प्रतिमा-सम्यग्दर्शनको दोष रहित पाले, २५ दोषों को बचाने, निःशंकित, निःकाक्षित, निर्विधिकित्सित, अमूरष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना आठ अंग पालकर इनके