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________________ ९०] योगसार टीका। कृष्ण, नील, कापोत, तीन अशुभ व पीत, पन, शक्ल तीन शुभ लेश्याएं हैं। (१२) भव्य मार्गणा दो प्रकार भविया सिद्धी जेसि जीवाणे ते हवंति भवसिद्धा । तबिवरीया भव्या संसारादो ॥ सिझंति ॥ ५५६ ।। भावार्थ- जीन जीवोंमें सिद्ध होने की योग्यता है ये भव्य हैं। जिनमें यह योग्यता नहीं है वे अभव्य हैं। (१२) सम्यक्त मार्गणा छ: प्रकार छप्पञ्चणयविहाग असा गवरोलगः । अगाए, अहिगमेण य सहण होइ सम्मत्तं ।। ५६० ॥ भावार्थ-छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय, नव पदार्थोंका जैसा जिनेन्द्रने उपदेश किया है वैसा अद्धान आज्ञाने या प्रमाणनयके द्वारा होना सम्यक्त है । मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, बेदक, क्षायिक ये छः भेद हैं। (१३) संज्ञी मार्गणा दो प्रकार- .. णोइन्दियआवरणखओपसम तज्जवोहण सम्णा । सा जम्स सो दु साणी इदरो सेसिदिअवबोहो ।। ६५२ ॥ सिक्वाकिरियुषदेसालावग्गाही मणोवलंघेण । जो जीवो सो सण्णी तब्दिवरीयो असणणी दु ।। ६६० ॥ भावार्थ-नो इंद्रिय जो मन उसको रोकनेवाले ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जो बोध होता है उसको संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा जिसको हो वह संझी है । जो केवल इंद्रियोंसे ही जाने वह असंज्ञी है। शिक्षा, क्रियाका उपदेश, वार्तालाप, संकेत वा जो मनके अलंबनसे
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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