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________________ योगसार टीका । [ २४९ स्थानोंको चले जाते हैं, वैसे ही एक परिवार में नाना जीब कोई - नरकसे, कोई पशुगतिसे, कोई देवगतिमें, कोई मनुष्यगति से आकर जमा हो जाते हैं । सब अपनी २ आयुपर्यंत रहते हैं। आयुके क्षय होते ही अपने बांधे हुए पाप पुण्यकर्मके अनुसार कोई देवगतिमें, कोई मनु'व्यगतिमें, कोई तिर्यगति, कोई नरकगति चले जाते हैं, किसीका कोई सम्बंध नहीं रहता है । सब प्राणी अपने मुख स्वार्थमें दूसबस मोह करते हैं। स्वार्थ न सधने पर नेह छोड़ देता है, पुत्र विरुद्ध हो जाते हैं, वृद्धावस्था में स्वार्थ सा न देखकर कुटुम्बीजन वृद्धको अवज्ञा करते हैं। कुटुम्बसे यदि इंद्रियोंके विषय सधते हैं नत्र तो सुखके कारण भासतें हैं । जब उनसे विषयभोग ज्ञानि पड़ती है तब ही के कारण हो जाते हैं । बारी सम्यग्दृष्टी जीवको जलमें कमलके समान गृहस्थको रहना चाहिये, मोहन करना चाहिये । उनको अपने जीवसे प्रथक मानकर उन जीवोंका उपकार भने सो करना चाहिये। उनकी रक्षा, शिक्षा व सुख से जीवननिर्वाह में साई होना चाहिये | उनको आत्मज्ञानके मार्ग पर लगाना चाहिये । यदि काम न करें. ब कम करे नो मनमें विषाद न करना चाहिये । बदले में सुख पानेके लोभसे उनका हित न करना चाहिये। उनके हितके पीछे अन्याय धन न कमाना चाहिये, न अपने आत्मकल्याणको मुल्लाना चाहिये। जो कुटुम्बरिवारका मोह छोड़ देते हैं वे सहज वैराग्यवान होजाते हैं। अथवा आत्महित करते हुए जबतक गृहस्थ में रहते हैं उनकी सेवा facere भाव करते हैं । जब अप्रत्यास्थान कपायका उदय अतिशय मंद रह जाता है तत्र कुटुंबत्यागी श्रावक होजाते हैं, परसे मोह नहीं करते हैं, केवल एक निज आत्माकी ही गाढ़ भक्ति करने
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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