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________________ २४८] योगसार टीका। कुटुम्ब मोह त्यागनेयोग्य है। इहु परियण ण हु महुतगउ इहु सुहु-दुक्खहँ हेउ । इम चितंतह कि करइ लहु संसारहँ छेउ ।। ६७ ॥ अन्वयार्थ-(इहु परियण महुतण ण हु) यह कुटुम्थ परिवार मेरा निश्श्रयसे नहीं है (इहु मुहु-दुक्खाह हेउ) यह, भाव सुखदुःस्त्रका ही कारण है (इम किं चिंतंतहँ) इसप्रकार कुछ विचार करनेग (संसार, छेर लह करद ) संसारका छेद शीध्र ही कर दिया जाता है। भावार्थ-यह प्राणी इन्द्रिय मुखका लोलुपी होता है । अपने मुखको प्राप्तिमें सरकारी प्राणियोंसे मोह कर लेता है। बाल्यावस्थामें मातापिता द्वारा पालापोवा जाता है व लाडम्यारमें रक्खा जाता है, उससे उनका तीत्र सोही हो जाता है । युवावयम स्त्रीस व पुत्रपुरास इन्द्रियसुरन पाला है, इसलिये उनका मोही हो जाता है । जिन मित्रोंसे व नौकर चाकरोंसे इन्द्रिय मुखभोगमें मदद मिलती है उनका मोदी हो जाता है । व जिनने इन्द्रिय सुग्बमें बाधा पहुंचती है उनका शत्रु बन जाता है। कुटुम्बके मोहमें ऐसा कहा जाता है कि उसको आत्माके म्वरूपके विचार के लिये अवकाश ही नहीं मिलता है। रातदिन उन परिवारजनों के लिये धन कमानेमें व धनकी रक्षा करनेमें ही लगा रहता है। यदि कोई कुटुम्बी अपनी आयुकर्मक क्षयसे मर जाता है वो यह मोही प्राणी उनके शोकमें बावला हो जाता है । वह इस बातको भूल जाता है कि परिवारका सम्बंध वृक्षपर रात बसरेके समान है। जैसे संध्याके समय एक वृक्षपर अनेक पक्षी भिन्न २ स्थानोंसे आकर जमा हो जाते हैं, सवेरा होनेपर सर्व पक्षी अलग २ अपने २
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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