SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार टीका । ।२५३ भावार्थ-जन मरण आ जाता है तो न वैदा, न पुत्र, न ब्राह्मारन इन्द्र, न अपनी स्त्री, न माता, न नौकर, न राजा कोई भी बचा नहीं सकते हैं । ऐमा विचार करकं साननोको आत्मीक काम कर. लेना योग्य है, देर न लगानी चाहिये। जीव सदा अकेला है। इक्क उपलाइ मरद कु वि दुहु खुद मुंजइ इक्कु । परयहँ जाइ वि इक जिउ तह मिव्वागहँ इक्कु ॥६९ ।। अन्वयार्थ--(इक उपजाई मरद कुत्र) जीर अकेला ही जन्मता है व अकेला ही मरना है (इका दा मुहू भुंजइ) अकेला ही दुःख या सुख भोगता है (इक जिय परयह आइर्वि) अकेला ही जीव नरक में भी जाता है. (तह इकु णिचाण) तथा अकेला जीर फिर निर्माणको प्राप्त होना है। भावार्थ-यहाँ गएकः र भावनाका विचार किया गया है। व्यवहार नबसे यह संसारी जीव नारीर लहिन अशुद्ध दशामें चारों गतियों में कदियके अनुसार भ्रमण किया करता है। इस भ्रमणसे इस जीवको अकेला है। जन्मना व अकेला ही मरना पड़ता है। हरएक जन्ममें माता पिता भाई बंधु बगैरट्ट मित्र व अन्य चेतन व अचेतन पदार्थोंका संयोग होता रहा, छुटता रहा । इस जीवको अकेला ही सबको छोड़कर दूसरी गतिमें जाना पड़ा | एक पाप पुण्य कम ही साथ रहा। कर्मोंका बंध यह जीव अपने शुभ व अशुभ भावमि जैसा करता है पैसा ही उनका फल यह जीव अकेला ही भोगता है ।. यदि कोई मोही मानव कुटुम्बके मोहमें परको घोर कष्ट देकर
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy