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________________ ६६ ] योगसार टीका । गुरु द्वारा दण्ड लेकर करते रहना । जैसे कषड़ेपर कीचका छोटा पड़ने से तुर्त धो डालनेमे वस्त्र साफ रहता है, वैसे ही मन, वचन, काय द्वारा दोष होजाने पर उसको आलोचना, प्रतिक्रमण तथा प्रायश्चित्त लेकर दूर कर देना चाहिये, तम परिणाम निर्मल रह सकेंगे। (२) विनय--बड़े आदरसे ज्ञानको बहाना, श्रद्धानको पक्का रखना, चारित्रको पालना व पूज्य पुरुषोंमें विनयसे वर्तना, उनके गुण स्मरण करना विनय तप हैं। (३) वैयावृत्य - माधु, आर्यिका श्रावक, श्राविका आदिकी मंत्रा करना | रोग, अन्य परीषद व परिणामोंकी शिथिलता आदि होनेपर शरीर व उपदेशसे या अन्य उपायसे आकुलता मेटना , स्वात्य या सेवा तब है। इससे ग्लानिका अभाव, बात्सल्य गुण, धर्मकी रक्षा आदि नप होता है। महान पुरुषों की सेवामे न्यान व स्वाध्याय की सिद्धि होती है। (४) स्वाध्याय -- ज्ञानभावना व आलस्य त्यागके लिये पांच प्रकार स्वाध्याय करना योग्य है (१) निर्दोष को पढ़ना व पढ़ाना व सुनाना व सुनना (२) संशय छेद व ज्ञानकी ताके लिये प्रश्न करना, (३) जाने हुए भावका वारम्वार विचारना, ( ४ ) शुद्ध शब्द न अर्थको घोलकर कण्ठ करना, (५) धर्मका उपदेश देना वाचना, गुरुना, आनुप्रेक्षा, आम्नाय धर्मोपदेश ये पांच नाम हैं। इसमें ज्ञानका अतिशय बढ़ता हैं, परम वैराग्य होता है व दोनोंकी शुद्धिका ध्यान रहता है। (५) व्युत्सर्ग-- बाहरी शरीर धन गृहादिसे व अंतरंग रागादि भाबस विशेष समताका त्याग करना, निर्हेप होजाना, असंगभावको पाना च्युत्सर्ग तप है ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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