SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११.२] योगसार टीका। छोड़कर, वीतराग होकर ( जी अप्पाणि बसेइ ) जो अपने भीतर आत्मामें वास करता है, आत्मामें विश्राम करता हैं ( सो धम्मु जिण वि उत्तियउ ) उसीको जिनेन्द्रने धर्म कहा है (जो पंचमगइ ई ) यही धर्म पंचमगति मोक्षमें लेजाता है । भावार्थ-धर्म आस्माका निज स्वभाव है। ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यमय आत्माका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान तथा उसी में घिरता अर्थात एक स्वात्मामुमत्र धर्म है। राग द्वेषकी परनों जन उपयोग चंचल होता है तब स्वभाव विकारी हो जाता है। इसलिये यहां यह उपदेश है कि राग द्वेपको त्यागकर अपने ही आत्माके भीतर विश्राम करो, आत्माहीमें मगन रहो, आत्माकं ही उपथनमें रमण करो तब वहां बंध नाशक, परमानंद दायक, मोक्षकारक धर्म स्वये मिल जायगा | धर्म अपने ही पास हैं, कहीं बाहर नहीं है जहांसे इस ग्रहण किया जावे | अतएव परसे उदासीन होकर, वीतराग होकर, समभावी होकर आपकी आत्मामें ही इसे देखना चाहिये। राग द्वेषके मिटानेका एक उपाय तो यह है कि जगतको व्यबहार दृष्टिसे देखना बंद कर निश्चय इटिसे जगतको देखना चाहिये तब जीयादि छहों द्रव्य सब अपने २ स्वभावमें दीखेगे, निश्चल दीवगे, सर्व ही जीव एक समान शुद्ध दीवगे तब किसी जीवमें राग व किसीमें द्वेष करनेका कारण ही मिट आयगा । व्यवहार दृष्टिमें शारीर सहिन अशुद्ध आत्माएं विचित्र प्रकारकी दीखनी हैं तब मोही जीव जिनसे अपने विषय कपाय पुष्ट होते हैं उनको राग भावसे र जिनसे विषयकषायोंके पोषनेमें बाधा होती है उनको द्वेषभावसे देखता है परंतु जब आप भी वीतरागी व सर्व पर आत्माएं भी वीतरागी दीखती हो तब समभाव स्वयं आजाता है । M aane
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy