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________________ योगसार टीका | [ १९३ पुलकीरचनाको जब व्यवहार से देखा जावे तब नगर, ग्राम, मकान, वस्त्र, आभूषण आदि नाना प्रकार के दीख पड़ेंगे विधायक को सब परमाणुरूप एकाकार दीखेंगे, तब वीतरागी देखनेवाले के भीतर रागद्वेषके हेतु नहीं हो सक्ते । शुद्ध नियतकी दृष्टि रागद्वेषके विकार मेटनेकी परम सहायक है | इससे रागद्वेष मेटने का यह उपाय है कि व्यवहाररूप विचित्र जगतको साक्षीभूत होकर ज्ञातादृष्टा होकर देखा जाये । सर्व ही द्रव्य अपने स्वभावमं परिणमन करते हैं । अशुद्ध आत्माएं आठ कर्मोंके उदयको भोगते हुए नानाप्रकार सुख या दुःखमय या नानाप्रकार रागदेषस्य परिणमन करते हैं, कर्मचेतना ब कर्मफल- चेतनामें उलझे दीखते हैं, तब उनको कर्मके उदय के आधीन देखकर रागद्वेष नहीं करना चाहिये । कर्मके संयोगसे अपनी भी विभाग दशाको देखकर विपाकविचय धर्मध्यान करना चाहिये व अन्य संसारी जीवांकी दशा देखकर वैसा ही कर्मका नाटक विचारना चाहिये। सुख व दुःख अपने में व दूसरोंमें देखकर हर्ष व त्रिपाद न करना चाहिये । समभावमे कर्मके विचित्र नाटकरूप जगतको देखनेका अभ्यास करना चाहिये । तीसरा उपाय यह है कि सम्यग्दर्शन के प्रताप विषयभोगों की कांक्षा या उनमें उपादेय बुद्धि मिटा देनी चाहिये | आत्मानन्दका प्रेमी होकर उसीके लिये अपने स्वरूपकी भावना में लगे रहना चाहिये । कर्मके उदयसे सुखदुःख आ जानेपर समभावसे या देय बुद्धिसे, अनासक्ति भोग लेना चाहिये । सम्यग्ज्ञान ही रागदेषके विकार मिटाने का उपाय है। 7 रागद्वेष कषायके उदयमे होते हैं तब सत्ता अन्ध प्राप्त कषायी वर्गेणाओंका अनुभाग सुखानेके लिये निरन्तर आत्मानुभवका १३
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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