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________________ ". - - . . . .. . योगसार टीका। [१९१ एवं ज्ञानम्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते । ततो देहमयं ज्ञातुन लिङ्गं मोक्षकारणम् ।। २५-१०॥ दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तस्वमात्मनः । एक गव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा ॥ ४६-१० ॥ भावार्थ-शुद्ध ज्ञान आत्माका है, उसके यह पुद्गलमय देह नहीं है, इसलिये ज्ञाता पुरुषका देह के आश्रय भेष या व्यवहारचारित्र मोक्षका कारण नहीं है | इसलिये मोक्षक अर्थीको सदा ही एकस्वरूप मोक्षमार्गका संवन करना चाहिये जो मोक्षमार्ग निश्चय रखनयमई आत्माशा तत्व है। बृहत् सामायिकपाटमें कहते हैं-- शरोऽहं शुभधीरई पटुरहं सत्रोऽधिक श्रीरहूं मान्योऽहं गुणवान, विमुरहं पुंसामहमग्रणीः । इत्त्यात्मन्नपदाय दुष्कृतकीं त्वं सर्वथा कल्पना शश्वद्ध्याय तदात्मतत्त्वममलं नैःश्रेयसी श्रीर्यतः ॥ ६२ ।। भावार्थ-हे आत्मन् ! तु इस पाप बंधकारक कल्पनाको छोड़, यह अहंकार न कर कि मैं शृर हूं, बुद्धिमान हूं, चतुर हूं, सर्वसे अधिक लक्ष्मीवान हूं, माननीय हूं, गुणवान हूँ, समर्थ हूं या सर्व मानवों में अम्र हूं, मुनिराज हूं, निरन्तर निर्मल आत्मतत्वका ही ध्यानकर इसीसे अनुपम मोक्षलक्ष्मीका लाभ होगा। रागद्वेष त्याग आत्मस्थ होना धर्म है । रायगोस चे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ । सो धम्मु धि जिण-उत्तियउ जो पंचम-गइ णेइ ॥१८॥ अन्वयार्थ-राय-रोस के परिहरिवि ) रागद्वेष दोनोंको
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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