SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - - - - - १९. ] योगसार टीका । थऑफा, जीव व अजीब तत्वका ठीक ठीक ज्ञान होजावे तथा भेदविज्ञानकी प्राप्निसे अपने भीतर शुद्ध तत्वकी पहचान होजावे । ____ इस कार्यके लिये शब्दोंका मनन आवश्यक है। यदि शुद्धामाका लाभ न करे केवल शालोमा माली महाग मिहानमा तर धर्मात्मा होनेका अभिमान करें तो यह सब मिथ्या है। इसीतरह कोई बहुत पुस्तकोंका संग्रह करें या पीछी रखकर साधु या क्षुल्लक श्रावक होजावे या केशोंका लोच करे या एकांत मठमें या गुफामें बेटे परंतु शुद्धात्माकी भावना न करे, बाहरी मुनि या श्रावक भेषको ही धर्म मानले तो यह मानना मिथ्या है । शरीरके आश्रय भेप केवल निमित्त है, व्यवहार है, धर्म नहीं है । व्यवहार क्रियाकांडसे या चारित्रसे रागभाव शुभ भाव होनेसे पुण्यबंधका हेतु है। परंतु कर्मकी निर्जरा व सकरका हेतु नहीं है । जहांतक भावों में शुद्ध परिणमन नहीं होता है वहातक धर्मका लाभ नहीं है। मुमुक्षु जीवको यह बात सट्नासे श्रद्धानमें रखनी चाहिये कि भावकी शुद्धि ही मुनि या श्रावक धर्म हैं। बाहरी त्याग या वर्तन अशुभ भावोसे व हिंसादि पांच पापोंसे बचना लिये है व मनको चिंतासे रहिल निराकुल करनेके लिये है । अतएव कितना भी ऊँचा बाहरी चारित्र कोई पाले व कितना भी अधिक शास्त्रका ज्ञान किसीको हो तो भी यह निश्चय धर्मक विना साररहित है, चावलरहित तुषमान है, पुण्यबन्ध कराकर संसारका भ्रमधा बढ़ानेवाला है | जितना अंश वीतराग विज्ञानमई भाक्का लाभ हो उतना ही धर्म हुआ तथा यथार्थ समझना चाहिये। बाहरी मन, वक्न, कायकी क्रियासे सन्तोष मानके धर्मात्मापनेका अहंकार न करना चाहिये । समयसार कलश में कहा है...... - ...
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy