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________________ १.७४ ] योगसार टीका । 'किसी गुरुके पास न किसी शास्त्रके वाक्योंमें अबतक जिसने परमात्माको देखा है अपने ही भीतर देखा है । वर्तमानमें परमात्माका दर्शन करनेवाले भी अपनी देह के भीतर ही देखते हैं, भविष्य में भी जो कोई परमात्माको देखेगा यह अपने शरीररूपी मंदिर में ही देखेंगे । जन ऐसा निश्चय सिद्धांत है तब फिर मंदिर में आकर प्रतिमाका दर्शन क्यों करते हैं व तीर्थक्षेत्रोंपर जाकर पवित्र स्थान पर क्यों मस्तक नमाते हैं ? इसका समाधान यह है कि ये सब निमित्त कारण हैं, जिनको भक्ति करके अपने ही भीतर आत्मा देवको स्मरण किया जाता है । जो उच्च स्थिति पर पहुंच गए हों कि हर समय आत्माका साक्षात्कार हो ये तो सातवें आगे आठ नौमें दर्शव आदि गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त में चढ़कर केवलज्ञानी होजाते हैं । जो सविकल्प | नीची अवस्था में हैं, जिनके भीतर प्रमाद जनक कषायका तीत्र उदय सम्भव है, ऐसे देशसंथम गुणस्थान तक श्रावक गृहस्थ तथा प्रमत्तविरत गुणस्थानधारी साधु इन सबका मन चाल हो जाता है, तब बाहरी निमित्तोंके मिलनेपर फिर स्त्ररूपकी भावनाएँ दूर हो जाती हैं । इनके लिये श्री जिन मन्दिर में प्रतिमाका दर्शन व तीर्थक्षेत्रोंकी वन्दना आत्मानुभव या आत्मीक भावना के लिये निमित्त हो जाते हैं । यहाँपर यह बताया है कि कोई मृह ऐसा समझ ले कि प्रतिभामें ही परमात्मा है या तीर्थक्षेत्र में परमात्मा बिराजमान है, उनके लिये यहां खुलासा किया है कि प्रतिमा में परमात्मा की स्थापना है या क्षेत्रों पर निर्वाणादिके पदोंकी स्थापना है । स्थापना साक्षात् पदार्थको नहीं बताती है किंतु उसका स्मरण कराती है व उसके गुणोंका भाव चित्र झलकाती है जिसकी वह मूर्ति हैं। बुद्धिमान कोई यह नहीं मान सक्ता कि ऋषभदेवकी प्रतिमामें ऋषभदेव हैं या
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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