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योगसार टीका |
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हैं व निर्वाण जाते हैं वे सब पवित्र स्थान आत्मधर्म रूपी तीर्थको स्मरण कराने के निमित्त होनेसे तीर्थ कहलाते हैं। जैसे अयोध्या, हस्तिनापुर, कॉपिल्या, बनारस, सम्मेद शिखर, गिरनार, राजगृह, पावापुर इत्यादि । जहां कहीं विशेष ध्यानाकार प्राचीन प्रतिमा होती है वह भी वैराग्य के निमित्त होनेसे तीर्थ माना जाता है जैसे श्रवणबेलगोला के श्री गोम्मटस्वामी, चांदनगांव के महावीरजी, सजोतके श्री शीतलनाथजी आदि ।
आत्मज्ञानी ऐसे तोथका निमित्त मिलाकर आत्मानुभवकी शक्ति बढ़ाता है | निश्चय तीये अपना आत्मा ही है, व्यवहार तीर्थ पवित्र क्षेत्र है ।
निज शरीर ही निश्चयसे तीर्थ व मंदिर है। तित्थहि देवलि देउ वि इम सुकेवलि बुत्तु । देहादेवलि देउ जिणु एहउ जागि णिरुतु ॥४२ ||
अन्वयार्थ - (मुइकेवल इम बत्तु ) श्रुतकेवली ने ऐसा कहा है कि ( तित्यहिं देवलि देउ णावे ) तीर्थक्षेत्रों में व देव मंदिरमें परमात्मा देव नहीं हैं ( णिरुत्तु एहउ जाणि) निश्चयसे ऐसा जान कि ( देहादेवाल जिणु दंड ) शरीररूपी देवालय में जिनदेव हैं।
भावार्थ - निश्चय से या वास्तव में यदि कोई परमात्मा श्री जिनेन्द्रका दर्शन या साक्षात्कार करना चाहे तो उसको अपने शरीके भीतर ही अपने ही आत्माको शुद्ध ज्ञान दृष्टिसे शुद्ध स्वभावी सर्व भावकर्म, द्रव्य कर्म, नोकर्म रहित देखना होगा । कोई भी इस जगतमें परमात्माको अपनी धर्मचक्षुसे कहीं भी नहीं देख सका है। न मंदिर में न तीर्थक्षेत्र में न गुफामें न पर्वतपर न नदी तीरपर न