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________________ • Comman १७२ ] योगसार टीका । भावार्थ-लौकिक फलकी इच्छासे आशावान होकर जो राग द्वेषसे मलीन देवताओंको पूजना सो देवमूढ़ता है । समन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिन पुरस्कारो ज्ञेये पाखण्डिमोहनम् ॥ २४ ॥ भावार्थ- परिग्रहधारी, आरंभ य हिंसा करने वाले, संसाररूपी चक्रमें वर्तने व वर्ताने वाले साधुओंका आदर सत्कार करना सो पाखण्ड मूढ़ता है ! लौकिक जन इन तीन प्रकारको मूढताओंसे ठगे गए संसारासक्त बने रहते हैं । इनके लिये तन, मन, धन अर्पण करके बड़ी भक्ति करते हैं। धन, स्त्री, निरोगता आदि लाभके लोभसे पशुबलि तक देवी देवताओंके नामपर करते हैं। धूर्तता व खोटे पापबन्धक नदी सागरादि तीर्थोंमें भ्रमण तबतक यह अज्ञानी करता रहता है जबतक इसको सम्यग्दर्शनका प्रकाश नहीं है । अपने ही आत्माको परमात्मा देव मानना व परमानंदका प्रेमी होना, संसारके विषयोंसे वैराग्य होना, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि लौकिक पदोंको अपर समझकर इनसे उदास होना, आत्मानुभवको ही निश्चय धर्म मानना सम्यग्दर्शन है । सम्यक्ती मुख्यतासे अपने आत्मादेवकी आराधना करता है । जब रागके उदयसे आत्मशक्ति नहीं हो सक्ती है तब बीतरागताके हो उद्देश्यसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पांच परमेष्ठियोंकी भक्ति करता है, शास्त्रोंका मनन करता है, वैराग्य दायक व आत्मज्ञान जागृत करनेवाले उत्तम तीर्थोंकी यात्रा करता है। संसारसे पार होनेवाले मार्गको वीर्थव पार होनेका मार्ग बतानेवालोंको तीर्थंकर कहते हैं। ये तीर्थकर या उनड़ी के समान अन्य मोक्षगामी महात्मा जहां जन्मते हैं, तप करते हैं, केवलज्ञान उपजाते
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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