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________________ योगसार टीका। [ १७५ महावीरकी प्रतिमामें महावीर हैं। यह यही मानेगा कि वे प्रतिमाएं ऋषभ या महावीरके ध्यानमय स्वरूपको झलकाती हैं, उनके वैराग्यकी मूर्ति हैं। ___ इन मूर्तियोंके द्वारा उनहीका स्मरण होता है व मूर्तिको वन्दना करनेस, व पूजन करनेस जिनकी मूर्ति है उसीकी वन्दना या पूजा समझी जाती हैं | क्योंकि भक्तिका लक्ष्य उनपर रहता है, जिनकी वह मूर्ति हैं । लौकिनमें भी दे गुरुपोंके दिनका आदर उनहीका आदर व उन चित्रोंका अनादर उनहींका अपमान समझा जाता है जिनका वह चित्र है । दर्शकके परिणाम भी मूर्ति के निमित्तसे बदल जाते हैं । वीतराग, तपददर्शक मूर्ति वैराग्य व रागवर्द्धक भूति रागभात्र उत्पन्न कर देती है । छठे गुणस्थानतकके भव्यजीव प्रतिमाओंकी व तीर्थक्षेत्रको भक्ति करते हैं। उनकी भक्ति के बहाने व सहारेसे अपने ही आत्माकी भक्तिपर पहुंच जाते हैं। जो सम्यग्दृष्टी है-आत्मज्ञानी हैं, जो अपनी दहमें अपने ही आत्माको परमात्मारूप देख सकते हैं उनके लिये मंदिर, प्रतिमा, तीर्थक्षेत्र आत्माराधनमें प्रेरक होजाते हैं। जैसे ज्ञानकी वृद्धि में शास्त्रों के वाक्य प्रेरक होजाते हैं । ये सब बुद्धिपूर्वक प्रेरक नहीं है, किन्तु उदासीन प्रेरक निमित्न हैं। तत्वार्थसारमें स्थापनाका स्वरूप हैसोऽयमित्यक्षकाष्ठादः सम्बन्धेनान्यवस्तुनि । यद्यवस्थापनामात्र स्थापना साभिधीयते ॥ ११-१॥ भावार्थ-लकड़ीकी गोठमें या अन्य वस्तुमें किसीको मान लेना कि यह अमुक है सो स्थापना निक्षेप है । जिसकी स्थापना करनी हो उसके उस भावको घैसी ही दिखानेवाली मूर्ति बनाना तदाकार स्थापना है। किसी भी चिलमें किसीको मान लेना अतदाकार
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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