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________________ Rune १७६ ] योगसार टीका । स्थापना है । जैसे चित्रपटमें किसी लकीरको नदी, किसी बिन्दुको पर्वत, किसी घेरेको नगर आदि मान ली है। स्थापना केवल की है । कोई मूढ़ स्थापनाको साक्षात् मानकर नदीकी स्थापनारूप लकी - रसे पानी लेना चाहे तो पानी नहीं मिलेगा। क्योंकि लकीर में साक्षात् नदी नहीं है । कोई साधुकी मूर्तिको देखकर प्रश्न करना चाहे तो उत्तर नहीं. मिल सकता। क्योंकि वहां साक्षात् साधु नहीं है, साधुका आकारप्रदर्शक चित्र है। तात्पर्य यह है कि मंदिर व तीर्थ में साक्षात् परमात्माका दर्शन नहीं होगा । परमात्मा जिनदेवका दर्शन तो अपने ही आत्माको आत्मारूप यथार्थ देखने से होगा । परमात्मप्रकाश में भी कहा है - देहा देउलि जो बस, देव अणाइ अतु । केवलणा फुरंत तणु सो परमप्पु भणेतु ॥ ३३ ॥ भावार्थ - देहरूपी देवालय में जो अनादिसे अनंतकाल रहनेवाला केवलज्ञानमई प्रकाशमान शरीरधारी अपना आत्मा है वही निःसंदेह परमात्मा है । अणुजि तित्थ में जाहि जिय, अण्णुजि गुरउ म सेवि । अणुजि देव म चिंत तुहुं अप्पा विमल मुवि ॥ ९५ ॥ भावार्थ - और तीर्थ में मत जा, और गुरुकी सेवा न कर अन्य देवकी चिंता न कर, एक अपने निर्मल आत्माका ही अनुभव कर, यही तीर्थ है, यही गुरु है, यही देव है, अन्य तीर्थ, गुरु व देव केवल व्यवहार निमित्त है । ➖➖
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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