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________________ ३०६ ] योगसार टीका | प्रकृतियोंका बंध नहीं करता है । वह तो देवगति या मनुष्यगति में ही जन्म लेता है। यदि निच या मनुष्य सम्यक्ती हुआ तो स्वर्गका देव होता है | यदि नारकी व देव सम्यक्ती हुआ तो मनुष्य होता है ! सम्यक्त लाभ होने के पहले यदि मनुष्य या निर्यचने नरकआयु च तिर्यंच आयु या मनुष्यायु बांधली हो तो सम्यक्त सहित पहले नर्क, व भोगभूमि चि च मनुष्य जन्मता है। वहां भी समभावमे दुःख सुख भोग लेता है । सम्यक्ती सदा ही सुखी रहता है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा हैसम्यदर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ् नपुंसकखत्वानि । दुष्कुरुविकृतारूपायुर्दरिद्रतां च ब्रजन्ति नाप्यवृत्तिकाः ॥ ३५ ॥ ओजस्तेजोविद्या वीर्ययशोवृद्धि विजय विभवमनाथाः । महाकुलाः महार्थां मानव तिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥ ३६ ॥ भावधि - सम्यग्दर्शन से शुद्ध जीव व्रत रहित होनेपर भी ऐसा पाप नहीं बांधते जिससे नारकी हो, तिथेच हो, नपुंसक हो, स्त्री हो, नीच कुल में पैदा हो, अंगहीन हो, अल्पायु हो, या दरिद्री हो । सम्यग्दर्शनसे पवित्र जीव ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि व विजयको पानेवाले महाकुलवान, महाधनवान मनुष्यों में मुख्य होते हैं । सम्यग्दृष्टीका श्रेष्ठ कर्तव्य | । अप्प - सरूवहूँ जो रमइ छंडिवि सहु वबहारु । सो सम्माट्ठी हव लहु पावड़ भवपारु || ८९ ॥ अन्वयार्थ -- (जो सहु षवहारु छंडिवेि ) जो सर्व व्यवहा को छोड़कर ( अप्प - सरू रमइ ) अपने आत्मा के स्वरूपमें रमण
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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