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________________ योगसार टीका । [ ३०७ करता है ( सो सम्माइडी हवइ ) वही सम्यग्दृष्टी है ( लहु पावइ भवपार ) यह शीघ्र ही संसारसे पार होजाता है । भावार्थ - जिसको निर्वाण ही एक ग्रहणयोग्य पद दिखता है, जी चारों गतिको सर्व कर्मजनित दशाओंकी त्यागनेयोग्य समझना है, जो अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वैचिके लाभको परम लाभ स झता है, जो निश्रयसे जानना है कि मैं सर्व शुद्ध सिद्ध सम हूँ व्यवहार दृष्टिमें कर्मका संयोग है सो त्यागने योग्य है, जो संसार वासमें क्षण मात्र भी रहना नहीं चाहता है वही सम्यग्दृष्टि है । वह जानता है कि निर्वाणका उपाय मात्र एक अपने ही शुद्ध आत्माके शुद्ध स्वभाव में रमण है । आत्मानुभव हैं। उसका निश्रितपने अभ्यास तब ही संभव है जब सर्व व्यवहारको व्याग दिया जाये, गृहस्थ प्रबंधको हटा दिया जाये ! स्त्री पुत्रावि कुटुम्बकी चिंताको मेट दियाजाये । धन, धान्य, भूमि मक्कानादि परिग्रहको त्याग दिया जाये । तीर्थंकर के समान यथास्यात रूप नन दिगम्बर पद धारण किया जाये, जहां बालकके समान सरल व शांत भाव में रहकर निर्जन स्थानोंमें आत्माका अनुभव किया जावे । साधुप में उतना ही व्यवहार रह जाता है जिससे भिक्षावृत्ति द्वारा शरीरका पालन हो व जब उपयोग आत्मीक भाव में न रमे तत्र शुद्धात्मा स्मरण करानेवाले शास्त्रोंके मनन व धर्म में स्तुति वंदना पाठादि पड़ने में उपयोगको रखा जावे । व्यवहार धर्मव्यात व धर्मकी प्रभावना करना इतना व्यवहार रहता है। आहार विहार व व्यवहार धर्मको करते हुए साधु इस व्यवहार से भी उदास रहते है आत्म वीर्यकी कमी से वर्तते हैं। जैसे२ आत्म ध्यानकी शक्ति बढ़ती जाती है वैसे २ यह व्यवहार भी छूटता जाता है, तौभी साधुपदमें इतनी अधिक आत्मरमणताका अभ्यास
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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