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________________ | I योगसार टीका | [ २८९ पूर्ण वैरागी होजाता है । अब रोग निवारणका उद्यम करना ही रोगी के लिये शेष रहा है मो प्रसंग व भाव प्रवीण वैव द्वारा बताई हुई औषधिको मंत्रन करता हुआ धीरे २ निरोगी होजाता है । उसी तरह सम्यक्ती जीव चारित्र मोहनीय के विकारोंको दूर करनेके लिये पूर्णपने कटिबद्ध होजाता है । यह भी उसने श्रीगुरु परम वैसे जाना है कि भावकर्मके रोगको मिटानेके लिये सत्ता में बैठे कर्मको नाश करनेके लिये व नवीन रोगके कारणसे बचने के लिये शुद्धात्मानुभव ही एक परम औषधि है। यह सम्यक्ती समय निकालकर स्वानुभव करना रहता है। कपायक अनुभागको सुखाना रहता है | आत्मबल बढनेपर व मन्दकपायके उदय होनेपर यह अधिक समय व थिरता पानेके लिये श्रावक के चारित्रको निमित्त कारण जानकर धारण कर लेना है | धीरे २ जैसे २ रागभाव बढ़ता है वह श्रावककी ग्यारह श्रेणीरूप प्रतिमाओं पर चला जाता है । जब स्वानुभवी शक्ति इतनी बढ़ा लेता है कि एक अन्तर्मुहूर्त में अधिक स्वानुभव से बाहर नहीं रह सके, घड़ी २ पीछे वारवार आत्मतत्वका स्वाद लेवे च गमनका कोई प्रपंच नहीं रुचे | आत्मरसमें मानो उन्मन्त होजाये तब बाहरी सकल त्याग करके सन्यासी या निथ होजाता है। श्रद्धान व ज्ञानकी अपेक्षा तो सम्यासी अविरत सम्यक्तके चौथे गुणस्थान में ही होगया था तब घंटे सातवें गुणस्थान में रहकर चारित्रकी अपेक्षा भी सन्यासी होगया है । निर्भयपदमें रहकर दिनरात स्वानुभवका अभ्यास करता है। यदि तद्भत्र मोक्षगामी होता है तो क्षायिक श्रेणीपर चढ़कर शीघ्र ही चार घातीय कर्मोंका क्षय करके केवलज्ञानी होजाता है । यहां तात्पर्य यह है कि आत्मा के सिवाय सर्वे परके साथ राग द्वेष मोहका त्याग ही सन्यास है । १९.
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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