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योगसार टीका। रमको त्या कर देता है ( नई पास गुणोदि) तू उसे ही सन्यास या त्याग जान । कंबल-णाणि उत्तु) ऐसा कंवलज्ञानीने कहा है।
भावार्थ--अन्तरंगम पर भावकि ममत्वके त्यागको सन्यास कहते हैं । बाहरी परिग्रहका त्याग अन्तरंग त्यागभावका निमित्त साधक है।
इस सन्यासका प्रारंभ सम्यग्दृष्टी अविरतिक हो जाता है। सम्यग्दृष्टी भले प्रकार ज्ञानता है कि मेरा स्वामीपना मेरे ही एक आत्माम है, मेरे आत्माका अमेदाप द्रव्यत्वं मेरा द्रव्य है, मेरे आत्माका असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र मेरा क्षेत्र है, मेरे आत्माके गुणोंका समय र परिणमन मेरा काल है, मेरे आत्मा शुद्ध गुण मेरा भात्र है, मैं सिद्धक समान शुद्ध निम्न निर्विकार हूं. मैं पूर्ण ज्ञानदर्शनवान हूं, पूर्ण आत्म वीर्यका धनी हैं, परम आनन्दमय अमृतका अगाध. सागर हूं । मैं परम कृतकृत्य हूं. जीवनमुक्त हूं। ___ मेरा कोई सम्बन्ध न अन्य आत्माओंसे हैं न पुलके कोई परमाणु व स्कंध है । न धर्म, अधर्म, आकाश व काल द्रव्यसे है, न मेरेमें आठ कम हैं, न झरीरादि हैं. न रागादि भाव है, न मेरमें इन्द्रियक विषयोंकी अभिलाया है, न मैं इन्द्रियसुत्रको सुख जानता हूँ। मैं अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुरखको सच्चा ज्ञान व मुख जानता हूं । सो मेरा धन मेरे पास है । इस तरह सम्यग्दृष्टी त्यागी श्रद्धा य ज्ञान परिणतिकी अपेक्षा परम सन्यासी है, परम त्यागी है। जैसे कोई प्रवीण पुरुष अपने भीतर होनेवाले रोगोंको पहचानकर व उनसे अहित जानकर उन रोगोंमे पृर्णपने उदासीन हो जाये वैसे सम्यक्ती जीव स्वास कमौके संयोगसे होनेवाले रागादि भाव व शरीरादि रोगोंको रोग व आत्माके लिये हानिकारक जानकर उनसे