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योगसार टीका |
समयमारकामें कहा हैसंन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्व मोक्षार्थिना संन्यन्ते सति तत्र का किल कथा यस्व पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षम्य हेतुर्भव
मिद्धिमुद्धर ज्ञानं स्वयं धावति ॥ १०४ ॥
भावार्थ - मोक्ष चाहनेवाले महात्माको उचित है कि सर्व ही कियाकांडकी व मन वचन कायको क्रियाका ममत्व त्याग देवे अ] आमा निज स्वभावक सिवाय संपका त्याग हो वहां पुण्य व पाप त्यागकी क्या बात ? इन दोनोंका त्याग है हो । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आदि स्वभाव में रहना ही मोक्षका मार्ग है । इस मार्ग में जो रहता है उसके पास कर्मरहित भावसे प्राप्त व आत्मीक र प्राणं ऐसा केवलज्ञान स्वयं दौड़कर आजाता है ।
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रत्नत्रय धर्म ही उत्तम तीर्थ है ।
स्पात मंजुत्त जिउ उत्तिम तिस्थु पवित्तु । airat कारण जोइया अणु ण तंतु ण मंतु ॥८३॥
अन्वयार्थ - ( जोइया ) हे योगी | ( रयणत्तयसंजुत जिउ उत्तिसु पवितु तित्यु ) रत्नत्रय सहित जीत्र उत्तम व पवित्र तीर्थ है ( मोकखहं कारण ) यही मोक्षका उपाय है (अण्णु तंतु ण मंतु ण और कोई तंत्र या मंत्र नहीं है ।
भावार्थ - कर्मबन्धसे छूटने का उपाय या भवसागर से पार होने का उपाय त्रय धर्म है । इसके सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं | निश्चय त्रय साक्षात् मोक्षमार्ग है या उपादान कारण हैं।