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________________ योगसार टीका | जीवाजीवतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । योगीपः श्रुतविद्यालोकमतनुते ॥ ४६ ॥ ११६ ] भावार्थ- द्रव्यानुयोग वह है जो दीपकके समान जीव अजीब तत्वोंको, पुण्य पापको बंध व पोको तथा भाव अज्ञान के प्रकाशको प्रगट करे । इसमें व्यवहारनयसे सात तत्वोंका स्वरूप बताकर फिर निश्चयनयसे पताकर यह झलकाया है कि यह अपना आत्मा ही परमात्मा है, यही ग्रहण करनेयोग्य हैं। मोक्षका उपाय एक शुद्ध आत्माका ज्ञान है | 'जो आत्माको लोकर समझना चाहे व आत्माको निर्वाण पथपर ले जाना चाहे उसका कर्तव्य है कि वह चारों ही अनुयोगों का ममी हो व चारों दीमें अपने आत्मा के शुद्ध तब पूर्ण निद्रय हो जायगा कि मोक्षमार्ग व दशांग वाणीका सार एक अपने श्री आत्माको शुद्ध परमात्मा के समान अनुभव करना है । की झांकी करे | समयसारमें कहा है जो हि देणाभिगच्छदि जम्मणमिणतु केवलं शुद्धं । तं मुदके व लिमिसिणो भर्णति लोगण्पदीया: ॥ ९ ॥ भावार्थ-द्वादशांग वाणीके द्वारा अपने आत्माको परके संयोग रहित केवल शुद्ध अनुभव करता है उसीको लोकके ज्ञाता महाऋषियाने निश्वयसे श्रुतकेवली कहा है. सर्व ग्रंथोंका सार यही है कि फटको छोड़कर यथार्थ यह जान ले कि मैं ही परमात्मा देव हूँ, आपही ध्यान से शुद्धता प्राप्त होगी ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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