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________________ योगसार टीका । [११७ मैं ही परमात्मा है। जो परमा सो जि हल जो हले सो परमाणु । इड जाणविगु जोइआ अण्णु म कर लिया ॥२२॥ अन्वयार्थ (जोइआ) हे योगी ! (जो परमाया सो 'जि ह) जो परमात्मा है वहीं मैं हूं (जो एवं सो परमम्पु) तथा जो मैं हूँ सो ही परमात्मा है (इउ जाणेविणु)सा जानकर (अण्णु वियप्प म करह) और कुछ भी विकल्प मत कर | भावार्थ-गृहां और भी दर लिया है कि महाग करना ऑको छोड़कर केवल एक शुद्ध निश्वयनयस अपने आत्माको पहचान । तब आप ही परमाना दीखेगा । अपने शारीररूपी मन्दिरमें परमात्मादेत्र साक्षात् दिख पड़ेगा । शास्त्रोका ज्ञान संकेत मात्र है । शास्त्र के ज्ञानमें ही जो उलझा रहेगा उसको अपने आःमाका दर्शन नहीं होगा। यह आत्मा को शब्दोंसे समझमें नहीं आता, मन विचारमें नहीं आता । इन्द को ऋम क्रमसे एक एक गुण व पर्यायको कहते हैं। मन भी कम एक पक गुण व पर्यायका विचार करता है | आल्मा तो अनन्नाप व पर्यायोंका एक अखपतु पिंड़ है। इसका सबा बोध तव ही होगा कि जब शारुतीय चर्चाओंको छोड़कर व सर्व गुणस्थान व मार्गणाओंके विचारको बन्द करके व सर्व कर्मवन्ध व मोक्षक उपायोंकि ऽयंचको त्याग करके व सर्व कामनाओंको दुर करके व मर्च पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे परे होकरके व सर्व मनके . द्वारा उटनेवाले विचार को रोक करके बिलकुल अभंग होकरके अपने ही आत्माको अपने ही आत्माके द्वारा ग्रहण किया जायगा तवं अपने आत्माका सादात्कार होगा। वह आत्मनत्य निर्विकल्प है अभेद है।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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