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________________ १५८ ] योगसार टीका । इसलिये निर्विकल्प होनेसे ही हाथमें आता है। जब तक रं मात्र भी माया, मिथ्या निदानकी राज्य भीतर रहेगी कोई प्रकास्की कासना रहेगी व कोई मिथ्यात्वकी गंध रहेगी तब तक आत्माका दर्शन नहीं होगा। यही कारण है जो व्यारह अंग नौ पूर्वक धारी द्रव्यलिंगी मुनि शास्त्रों का ज्ञान रात हुये भी व घोर तपश्वरण करते हुये भी अज्ञानी मिया हो रहा है। क्योंकि शुद्धात्माकी श्रद्धा पर अनुभव मे पूर्ण हो नहीं पहुंचते हैं, उनके भीतर कोई मिथ्यास्वकी शल्य व निदानकी शह ऐसी सूक्ष्म रहजाती है जिसको केवलज्ञानी ही जानते हैं । शास्त्रोंका ज्ञान आत्माकं स्वरूपको समझने के लिये जखती है । जाननेके पीछे व्यवहार नयके वर्णनको छोड करके शुरू पिने काम करते समय भी मनका आलम्बन है। मनन करते करते जब मनन बंद होगा व उपयोग स्वयं स्थिर हो जायगा जब स्वानुभव होगा, तब ही आत्माका परमात्मा रूप दर्शन होगा व परमानंदका स्वाद आयगा | मैं ही परमात्मा हूँ ऐसा विकल्प न करते हुये भी परमामापनेका अनुभव होग | परदेशसे कोई फल ऐसा आया है जिसके स्वादको हम नहीं जानते हैं, हमने उसका स्वाद लिया नहीं हैं, तत्र हमारा पहले तो कर्तव्य है कि हम के गुण दो किमी जान कारसे जिसने स्वयं स्वाद लिया है पूछ कर ठीक २ समझ कि यह फल गुणकारी है, स्वास्थ्यवर्द्धक है, मि है, इत्यादि। जानने के पीछे हमको उस फलके संबंध की चर्चा या विचारावली छोड़कर फलको रसना के निकट लेजाकर व अन्य ओरसे उपयोगको रोककर उस उपयोगको फल स्वाद देनेमें जोड़ना दोगा, तब हमको एकाय होनेपर ही उस फलके का यथार्थ बोध होगा । परि हम उस फलको खाते नहीं हम कभी ओ उस फलके स्वादको नहीं पहचान पाते ।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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