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________________ योगसार टीका | [ ११५ पुण्यका हो, जो नकी प्राप्ति व समाधिका भंडार हो, जो सम्यक प्रदर्शक हो । निश्चय व समाधि अपने ही शुद्धात्माको परमात्मा रूप निश्चय करनेसे होती हैं । प्रथमानुयोग में बताया है कि जिन्होंने अपनेको शुद्ध समझके पूर्ण वैरागी होकर आत्मध्यान किया था से ही निर्वाणको पहुंचे हैं। इसलिये वह अनुयोग भी आत्मतत्व झल्कनेवाला है। लोकालोकविभत्तेर्युगपरिवृत्तैश्चतुर्गां । आदर्शमव तथामतिवैति का च ॥ ४४ ॥ भावार्थ-करणानुयोग में लोक अलोकके विभागका, काळके गुणोंके पल्टनेका व चारों गतियोंकी भिन्न भिन्न जीवोंकी अवस्थाओंका, विणा व गुणवानका दर्पण के समान ठीक २ वर्णन हैजिससे सम्मज्ञानका प्रकाश होता है। कम के संयोग सांसारिक अवस्था व विभाव परिपतियाँ किसतरह होती हैं उन सबका सूक्ष्म कथन करके यह झटकावा है कि जहाँतक कमका संयोग नहीं हटेगा भवभ्रम नहीं हटेगा व आत्मा तो मापसे कर्मरहित शुद्ध है। ग्रहमध्यनगाराणां चारित्रोत्परिवृद्धिरथाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सन्यज्ञानं विजानाति ॥ ४५ ॥ भावार्थ - जिसमें गृहस्ती व साधुओंके चारित्र की प्राप्ति वृद्धि च रक्षाका उपाय बताया हो व जो सम्यग्ज्ञानको प्रगट करे वह चरणानुयोग है। इसमें भी निश्चय चारित्र खात्मानुभवको बताते हुए उसके लिये निमित्त साधनरूप श्रावक व मुनिके व्यवहार चारित्रके पाटनका उपाय बताया है व यह समझाया है कि निश्चय आस्मतत्वके भीतर चर्या विना व्यवहार चारित्र केवल मोक्षमार्ग नहीं है। आत्माको परमात्मा रूप अनुभव करेगा तब ही सम्यक्चारित्र होगा।
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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