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योगसार टीका |
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पुण्यका हो, जो नकी प्राप्ति व समाधिका भंडार हो, जो सम्यक प्रदर्शक हो । निश्चय व समाधि अपने ही शुद्धात्माको परमात्मा रूप निश्चय करनेसे होती हैं । प्रथमानुयोग में बताया है कि जिन्होंने अपनेको शुद्ध समझके पूर्ण वैरागी होकर आत्मध्यान किया था से ही निर्वाणको पहुंचे हैं। इसलिये वह अनुयोग भी आत्मतत्व झल्कनेवाला है। लोकालोकविभत्तेर्युगपरिवृत्तैश्चतुर्गां ।
आदर्शमव तथामतिवैति का च ॥ ४४ ॥
भावार्थ-करणानुयोग में लोक अलोकके विभागका, काळके गुणोंके पल्टनेका व चारों गतियोंकी भिन्न भिन्न जीवोंकी अवस्थाओंका, विणा व गुणवानका दर्पण के समान ठीक २ वर्णन हैजिससे सम्मज्ञानका प्रकाश होता है। कम के संयोग सांसारिक अवस्था व विभाव परिपतियाँ किसतरह होती हैं उन सबका सूक्ष्म कथन करके यह झटकावा है कि जहाँतक कमका संयोग नहीं हटेगा भवभ्रम नहीं हटेगा व आत्मा तो मापसे कर्मरहित शुद्ध है।
ग्रहमध्यनगाराणां चारित्रोत्परिवृद्धिरथाङ्गम् ।
चरणानुयोगसमयं सन्यज्ञानं विजानाति ॥ ४५ ॥
भावार्थ - जिसमें गृहस्ती व साधुओंके चारित्र की प्राप्ति वृद्धि च रक्षाका उपाय बताया हो व जो सम्यग्ज्ञानको प्रगट करे वह चरणानुयोग है। इसमें भी निश्चय चारित्र खात्मानुभवको बताते हुए उसके लिये निमित्त साधनरूप श्रावक व मुनिके व्यवहार चारित्रके पाटनका उपाय बताया है व यह समझाया है कि निश्चय आस्मतत्वके भीतर चर्या विना व्यवहार चारित्र केवल मोक्षमार्ग नहीं है। आत्माको परमात्मा रूप अनुभव करेगा तब ही सम्यक्चारित्र होगा।