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________________ १ योगसार टीका । श्रद्धानाधिगमोंपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना । सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः ॥ ४ ॥ भावार्थ- मोक्षमार्ग निश्चय तथा व्यवहारसे दो प्रकारका है। निश्चय मार्ग साध्य है, व्यवहार साधन है। अपने ही शुद्ध आत्माका श्रद्धान ज्ञान व सूत्रे परसे उदासीन भावरूप उपेक्षा या स्व रूपमें - दीनता ऐसा निश्रय रत्नत्रय स्वरूप आत्माका शुद्ध भाव निश्चय मार्ग है । पद पदार्थोंकी अपेक्षा श्रद्धान ज्ञान व त्याग करना व्यवहार वय मोक्षमार्ग है | व्यवहारके सहारे किये। [ २१३ रत्नत्रयका स्वरूप | दंसण जं पिच्छिइ बुह अव्या विमल महेतु । पुणे पुणे अप्पा मारियए सो चारित पवितु ॥ ८४ ॥ अन्वयार्थ -- ( अप्पा विमल महंतु ) यह आत्मा मलरहित शुद्ध व महान परमात्मा है । जे पिच्छियइ बुह दंसणु ) ऐसा जो श्रद्धान करना सो सम्यग्दर्शन है व ऐसा जानना सो ज्ञान है ( पुणु पुणु अप्पा सायिए सो चारिच पवितु ) कारवार उस आत्माकी भावना करनी सो पवित्र या निश्चय शुद्ध चारित्र है । भावार्थ - अपने आत्माका यथार्थ स्वरूप जानकर श्रद्धान करना चाहिये | यह आत्मा द्रव्य परिणमनशील है गुणोंका समूह है । गुणोंमें स्वभाव परिणमन होना द्रव्यका धर्म है। परिणमन शक्ति ही गुणोंकी समय पर्यायें होती हैं, व्यवहार से यह अपना आत्मा कर्म सहित मलीन दिखता है। कर्मोक संयोगसे चौदह गुण- स्थान व चौदह मागणारूप आत्माको अवस्थाएँ जो होती हैं वे आत्माका निज शुद्ध स्वभाव नहीं हैं। जब शुद्ध निश्चयनयसे जाना
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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