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________________ योमसार टीका। [३०९ आत्मबीर्यकी कमीसे वह लाचार हो जाता है । सम्यग्दृष्टीका लक्ष्य एक निर्वाण ही हो जाता है। वह अवश्य निर्वाणपुरमें पहुंच जायगा : देवसनाचार्य तत्वसारमें कहते हैंसहइ ा भन्चो मोक्ख जावइ परदव्ययावडो चित्तो। उगतवपि कुणतो सुद्धे. भावे लहुं ला ॥ ३३ ॥ भावार्थ-जबतक चित्त परद्रव्यके व्यबहारमें रहना है व मंलग्न है, तबतक भत्र्यजीव कठिन २ तप करता हुआ भी मोक्षको नहीं पाता है परंतु शुद्ध आत्मीक भावोंका लाभ होनेपर वह शीघ्र ही मोक्षको पालेता है। सम्यक्ती ही पंडित व मुखिया है। जो सम्मत्त-पहाण बुहु सो तइलोय-पहाणु । केवल-पाण वि लहु लहइ सासय-सुक्ख-णिहाणु ॥१०॥ अन्वयार्थ-(जो सम्मत्त-पहाण) जो मम्यग्दर्शनका स्वामी है (बुह) वह पंडित है (सो तइ लोय पहाणु ) वही तीन लोकमें प्रधान है : मासय सुक्ख णिहाणु केवल-णाण वि लहु लहइ) सो अविनाशी मुख निधान केवलज्ञानको शीत्र ही पालेता है। भावार्ध-सम्यग्दर्शन सर्व गुणोंमें प्रधान है। इसके होते हुए जान सम्यग्ज्ञान व चारित्र सम्यक्चारित्र होजाना है। जैसे के अंक सहित बिन्दी सफल होती है, नहीं तो निष्फल, है से सम्यान सहित ज्ञान व चारित्र मोक्षकी तरफ लेजानेवाले हैं। यदि सम्यक्त म हो तो केवल पुण्य बांधके संसारके भ्रमणके ही कारण हैं । - .. जैसे मूल विना वृक्ष नहीं, नीव विना घर नहीं वैसे ही सभ्यक्तके वीज बिना धर्मरूपी वृक्ष नहीं उगता है। जिसको अनेक
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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