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________________ '२२०] योगसार टीका । आत्माको घीके समान दीखता है | आप ही दूध है, आप ही दहीं है, आप ही बी है । मुमुक्षुको निज आत्मारूपी गोरसका ही निरन्तर पान करना चाहिये । परम वीर्यवान व सन्तोषी रहना चाहिये । (५) पाषाण-आत्मा पत्थरके समान दृढ़ व अमिट है । अपने भीतर अनन्त गुणोंको रखता है | उनको कभी कम नहीं करता है | न किसी अन्य गुणको स्थान देता है । अगुरुला सामान्य गुणके द्वारा यह अपनी मर्यादामें वना रहता है | आठ कर्मोंके संयोगसे संसार-पर्यायमें रहता है तो भी कभी अपने स्वभावको त्यागकर आत्माम अनारमा नहीं होता है। निश्चल परम बद सदा रहता है। (६) सुवर्ण-आत्मा शुद्ध सुवर्ण था कुन्दनके समान परम 'प्रकाशमान ज्ञान धातुने निर्मित अमृनीक एक अद्भुत मूर्ति है। संसारी आत्मा खानम निकले हुए धातु, पाषाण, सुवर्णकी तरह अनादिसे कर्मरूपी कालिमासे मलीन हैं । अग्नि आदिके प्रयोगसे जैसे सोनेकी वस्तु पाषाणभे अलग करके शुद्ध कुन्दन कर लिया जाता है वैसे ही आत्मध्यानकी आगसे आत्माको कर्मोकी कालिमासे शुद्ध सिद्ध समान कर लिया जाता है | (७) चांदी-आत्मा शुद्ध चाँदीके समान परम निर्मल है । कर्मों के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप संबोग होनेपर भी कभी अपने शुद्ध स्वभावको त्यागता नहीं है । इस आस्मामें ज्ञानका परम प्रकाश है। वीतरागताकी सफेदी है या स्वच्छता है । जो ज्ञानी आत्मारूपी चादीका सदा व्यवहार करता है, आत्माके ही भीनर रमण करता है बह कभी परमानंदरूपी धनसे शुन्य नहीं होते है । (८) स्फटिकमणि-यह आत्मा स्फटिकमणिक समान निर्मल है व परिणमनशील है। फोक उदयका निमित्त न होनेपर
SR No.090549
Book TitleYogasara Tika
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages374
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Yoga, & Spiritual
File Size6 MB
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